SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३० ] आगम और त्रिरिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ १. उववाइय ( ओक्वाइय ) ( औपपातिक ) জীবণান৷ কা অথ उपपात का अर्थ प्रादुर्भाव या जन्मान्तर-संक्रमण है। उपपात ऊर्ध्वगमन या सिद्धिगमन ( सिद्धत्व-प्राप्ति ) के लिए भी व्यवहृत हुअा है। इस अग में नरक व स्वर्ग में उत्पन्न होने वालों तथा सिद्धि प्राप्त करनेवालों का वर्णन है ; यह इसलिये औपपातिक है । यह पहला उपांग है । विषय-वस्तु __ प्रस्तुत ग्रन्थ में नाना परिणामों, विचारों, भावनाओं तथा साधनाओं से भवान्तर प्राप्त करनेवाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है, अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस पागम में हृदयग्राही विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें नगर . उद्यान, वृक्ष, पृथ्वीशिला, राजा, रानी, मनुष्य-परिषद्, देव-परिषद्, भगवान् महावीर के गुण, उनका नख-शिख शरीर, चौंतीस अतिशय, साधुओं के गुण, साधुओं की उपमाएं, तप के ३५४ भेद, केवलि-समुद्धात, सिद्ध, सिद्ध-सुख प्रादि के विशद वर्णन प्राप्त होते हैं । अन्य ( श्रुत ) ग्रन्थों में इसी ग्रन्थ का उल्लेख कर यहां से परिज्ञात करने का संकेत कर उन्हें वरिणत नहीं किया गया है । श्रत-वाङमय में वर्णनात्मक शैली की रचनाओं में यह महत्वपूर्ण स्थान रखता है । २. रायपसेणीअ (राज-प्रश्नीय) देव प्रधिकार, देव विमान अधिकार, देव ऋद्धि अधिकार, परदेशी राजा अधिकार तथा दृढ़प्रतिज्ञकुमार अधिकार, नामक पांच अधिकारों में यह आगम विभक्त है। प्रथम तीन अधिकारों में सूर्याभ देव का, चतुर्थ अधिकार में परदेशी राजा का तथा पंचम में दृढ़प्रतिज्ञकुमार का वर्णन है। विषय-वस्तु गणधर गौतम द्वारा महा समृद्धि, विपुल वैभव, अनुपम दीप्ति कान्ति और शोभासम्पन्न सूर्याभदेव का पूर्व भव पूछे जाने पर भगवान् महावीर उन्हें उनका पूर्व भव बतलाते १. उपपतनमुपपातो देवनारकजन्म सिद्धिगमनं चातस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकमिदं चौपांग वर्तते। -अभिधान राजेन्द्र, तृतीय भाग, पृ० ९० ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy