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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३१ हुए कहते हैं कि यह पूर्व भव में राजा परदेशी था। यहीं से राजा परदेशी का वृत्तान्त प्रारम्भ हो जाता है, जो इस सूत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग है। राजा परदेशी अनात्मवादी या जड़वादी था। उसका भगवान् पार्श्व के प्रमुख शिष्य केशीकुमार के सम्पर्क में आने का प्रसंग बनता है। अनात्मवाद और आत्मवाद के सन्दर्भ में विस्तृत वार्तालाप होता है। राजा परदेशी अनात्मवादी, अपुनर्जन्मवादी तथा जड़वादी दृष्टिकोण को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित करता है। श्रमण केशीकुमार युक्ति और न्यायपूर्वक विस्तार से उसका समाधान करते हैं। राजा परदेशी सत्य को स्वीकार कर लेता है
और श्रमणोपासक बन जाता है। धर्माराधनापूर्वक जीवन-यापन करने लगता है। रानी द्वारा विष-प्रयोग, राजा द्वारा किसी भी तरह के विद्धिष्ट और विक्षुब्ध भाव के बिना आमरण अनशन पूर्वक प्राणत्याग के वर्णन के साथ यह अधिकार समाप्त हो जाता है।
प्रात्मवाद तथा जड़वाद की प्राचीन परम्पराओं और विमर्श-पद्धतियों के अध्ययन की दृष्टि से इस सूत्र का यह भाग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गणधर गौतम के पूछे जाने पर भगवान् महावीर ने आगे बताया कि सूर्याभदेव अपने अग्रिम जन्म में दृढ़प्रतिज्ञकुमार होगा। इस प्रकार अन्तिम अधिकार दृढ़प्रतिशकुमार का है, जिसमें उसके भविष्यमाण जीवनवृत्त का उल्लेख है। সংলথ সামর্শী
सूर्याभदेव के विमान, जो उस (देव) का विशाल, सुन्दर, समृद्ध और सर्वविध सुविधापूर्ण सुसज्ज लोक था, के रचना आदि के प्रसंग में जो वर्णन पाया है, वहां तोरण, शालभंजिका, स्तम्भ, वेदिका, सुप्रतिष्ठक, फलक, करण्डक, सूचिका, प्रेक्षागृह, वाद्य, अभिनय आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं। वास्तव में प्राचीन स्थापत्य, संगीत, मादि के परिशीलन की दृष्टि से यह प्रसंग महत्वपूर्ण है । भगवान् महावीर के समक्ष देवकुमारतथा देवकुमारियों द्वारा बत्तीस प्रकार के नाटक प्रदर्शित किये जाने का प्रसंग प्राचीन नृत्त, नृत्य' पौर नाट्य प्रादि के सन्दर्भ में एक विश्लेषणीय और विवेचनीय विषय है। एक अहह
'नन्दी-सूत्र में रायपसेणिय पाया है। प्राचार्य मलय गिरि ने इस नाम को रायपसेणीअ माना है। डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके लिए रायपसेणइय का प्रयोग किया है। इस १. नृत्तं ताललयाश्रयम । ताल से मात्रा और लय से द्रुत, मध्य तथा मन्द । जसे,
लोक-नृत्य, भीलों का गरबा । २. भावाश्रयं नृत्यम्-नृत्य में गात्र-विक्षेप से भाव-व्यंजना। जैसे, भरतनाट्यम् कत्थक नृत्य
उदयशंकर के नृत्य ! विशेष-नृत्त और नृत्य के दो-दो भेद-लास्य-मधुर, ताण्डव-उद्धत । ३. अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् । आंगिक, वाचिक आहार्य एवं सात्विक अभिनयों द्वारा किसी की
अवस्था का अनुकरण ।
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