SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय १६३ वे सर्वथा अप्रयुक्त मानते हैं । पदि पालि शब्द का अर्थ पंक्ति होता, तो उस अवस्था में उदानपालि जैसे प्रयोगों में उदान-पंक्ति ऐसा अर्थ करने से कोई संगत आशय नहीं निकलता। व्याकरण की दृष्टि से एक पहलू पर वे और प्रकाश डालते हैं कि पालि शब्द पंक्तिवाची होता, तो उसका बहुवचन में प्रयोग मिलना चाहिए था। पर, ऐसा नहीं मिलता। डा. भरतसिंह उपाध्याय ने इस प्रसंग में लिखा है-"भिक्षु जगदीश काश्यप ने को आपत्तियां उठाई हैं, उनमें से प्रथम के उत्तर में आंशिक रूप में कहा जा सकता है कि त्रिपिटक की अलिखित अवस्था में 'पालि' या 'पंक्ति' शब्द से तात्पर्य केवल शब्दों की पठित पंक्ति से लिया जाता रहा होगा और उसके लेख-बद्ध कर दिये जाने पर उसकी लिखित पंक्ति हो पालि कहलाई जाने लगी होगी।"1 पंक्ति शब्द के माशय के सम्बन्ध में डा० उपाध्याय जो कल्पना करते हैं, वह चिन्त्य प्रतीत होती है। अलिखित ग्रन्थ अर्थात् मौखिक परम्परा में अवस्थित शास्त्र-विशेष का विभाजन गाथाओं, श्लोकों, पदों आदि में होता है, पंक्तियों में नहीं। पंक्ति में अक्षरों के परिमाण की कोई इयत्ता नहीं होती। पत्र का जितना विस्तार होता है, उसके अनुरूप छोटी या बड़ी पंक्ति होती है । भिक्षु जगदीश काश्यप भिक्षु जगदीश काश्यप ने पालि-महाव्याकरण में पालि का व्यौत्पत्तिक विश्लेषण करते हुए इसे 'परियाय' शब्द से जोड़ा है। परियाय शब्द का त्रिपिटिक में अनेक बार प्रयोग हुआ है-अकेले भी और 'धम्म' शब्द के साथ भी। भिक्षु जगदीश काश्यप ने अनेक संदर्भो से यह स्पष्ट किया है कि परियाय शब्द का प्रयोग बुद्ध के उपदेश या वचन के अर्थ में हुआ है। परियाय शब्द ही आगे चलकर पलियाय के रूप में परिवर्तित हो गया। अशोक के भाव शिलालेख में पलियाय शब्द व्यवहृत हुआ है। वहां अशोक का मगध के भिक्ष ओं को उद्दिष्ट कर सन्देश है—'भन्ते ! ये धम्मपलियाय हैं । मैं चाहता हूं कि सभी भिक्षु तथा भिक्षणियां, उपासक तथा उपासिकाएं इन्हें सुनें, धारण करें।": * पलियाय शब्द का पूर्वाद्ध 'पलि', जो उपसर्ग प्रतोत होता है, का प्रथम अक्षर 'प' 'पा' के रूप में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार पलियाय का पालियाय बन गया । संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से उसका उत्तराद्ध' लुप्त हो गया और पूर्वाद्ध मात्र पालि बचा रह गया। उसका प्रयोग मूल त्रिपिटक के अर्थ में बद्धमूल हो गया। १. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ७, ८ २. इमानि भन्ते धम्मपलियायानि-एतानि भन्ते धम्मपलियायानि इच्छा मि किं ति बहुके भिखुपाये चा भिबुनिये या अभिखिनं सुनयु चा उपधालेयेयु चा। हैवं मैव उपासका चा उपासिका चा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy