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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: इति शिवार्यम् । तच्छिवार्यम् । अहो शिवायं वर्तते । शिवार्य शब्दो लोके सुष्ठ प्रकत इत्यर्थः । सूत्र १.३.१६८ की वृत्ति में
शोभनः सिद्धविनिश्चयः शिवार्यस्य शिवार्येण वा । शाकटायन ने स्त्री-मुक्ति के प्रसंग में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख किया है । वहां उन्होंने उनकी दो कारिकाए उद्धृत की हैं । जो इस प्रकार हैं :
यत संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत साधनमतोऽन्यवधिकरणमाहाहन् ।। अस्तैन्य बहिरव्युत्सर्गविवेकषणादिसमितीनाम् ।
उपदेशनमुपदेशो ह्य पधेरपरिग्रहत्वस्य ।। वस्त्र धर्मोपकरण है या परिग्रह–इस पहलू की विशेषतः इन कारिकाओं में चर्चा है । यहां वस्त्र को संयम का उपकरण बताते हुए उसे धर्म का साधन बताया है।
यह श्वेताम्बर दृष्टिकोण है, जो इन कारिकाओं में समर्थित हुआ है । ये कुछ ऐसे प्रमाण हैं, जिनसे शिवार्य के यापनीय होने का अनुमान सही प्रतीत होता है।
अपराजित सूरि नामक विद्वान् की आराधना पर टीका है। उसके भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे शिवार्य के यापनीय मत से सम्बद्ध होने की सम्भाव्यता प्रकट होती है । অথবান পুহ ৷া বিএন
अपराजित सूरि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रास-पास के विद्वान् थे। उनका दूसरा नाम विजयाचार्य था। एक मोर जहां उन्होंने आराधना पर टीका लिखी, दूसरी ओर वशवकालिक सूत्र पर भी टीका की रचना की। वशवकालिक सूत्र के वर्णन-प्रसंग में उसकी चर्चा की गई है । उन्होंने दोनों टीकापों का नाम विजयोदया रखा।
भगवती आराधना, जो अधिकांशतः दिगम्बर-परम्परा से सम्बद्ध है तथा दशवकालिक, जो श्वेताम्बरों के मूलसंज्ञक मान्य ग्रन्थों में मुख्य है, पर टीका रचने तथा उद्गत विषयविवेचन आदि से प्रतीत होता है कि अपराजित सूरि यापनीय संघ के थे। उदाहरणार्थ
१, आराधना की ११९७ वीं गाया की व्याख्या के अन्तर्गत अपराजित सूरि द्वारा उल्लेख
"वशवकालिकटीकायां श्री विजयोवयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ।
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