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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय । ५७३ प्रथम शती का मध्ध लिखा है। यद्यपि समय की निश्चिती के सम्बन्ध में कोई ठोस एवं विश्वस्त प्रमाण प्राप्त नहीं है, फिर भी शिवार्य काफी प्राचीन हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन संघ के विभक्त हो जाने के पश्चात् यापनीय संघ के अस्तित्व में आने के अनन्तर शिवार्य का समय सम्भावित हो सकता है । माराधना : के प्रश्न - चिन्ह ११
यद्यपि आराधना या भगवती आराधना दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है, पर उसमें वरिणत विषयों का परिशीलन करने से पता चलता है कि वे दिगम्बर-माम्नाय द्वारा स्वीकृति सिद्धान्तों से सम्पूर्णतः मेल नहीं खाते। दिगम्बर-सम्प्रदाय के मन्तव्यों से कुछ भिन्नता भी वहां दृष्टिगत होती है । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इस सम्बन्ध में लिखा है: “.... ध्यान रखने की बात है कि भगवती आराधना की अनेक मान्यताएं दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार से मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए, रुग्ण मुनियों के वास्ते अन्य मुनियों द्वारा भोजन-पान लाने का यहां निर्देश है। इसी प्रकार विजहना अधिकार में मुनि के मृत शरीर को जंगल में छोड़ आने की विधि बताई है। श्वेताम्बरों के कल्प, व्यवहार, आचारांग और जीतकल्प का भी उल्लेख यहां मिलता है । "आवश्यक-नियुक्ति,
वृहतुकल्प-माष्य प्रादि श्वेताम्बरों के प्राचीन ग्रन्थों से भगवती आराधना की अनेक गाथाएं मिलती हैं."
इससे प्रकट होता है कि शिवार्य कुछ इस कोटि के मनीषी हैं, जिनके विचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर–दोनों परम्पराओं से संपृक्त हैं । ऐसा अनुमान है कि सम्भवतः वे योपनीय परम्पराओं के रहे हों । यदि ऐसा नहीं होता तो वे उस प्रकार का उल्लेख कैसे करते, जिससे श्वेताम्बर-आगमों की प्रामाणिकता की पुष्टि होती।
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शाकटायन, जो स्वयं यापनीय थे, जिनके सम्बन्ध में विशेष रूप से आगे लिखा जायेगा, अपने व्याकरण की स्वोपज्ञ अमोघ वृत्ति में शिवार्य की बड़े आदर के साथ चर्चा करते हैं, बो निम्नांकित उद्धरणों से स्पष्ट है :
शाकटायन व्याकरण सूख २।११ की वृत्ति के अन्तर्गत
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३३५ २. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ३०४
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