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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५७५ आराधना की निम्नांकित गाथा की अपराजित सूरि ने अपनी टीका में जो व्याख्या की है, जिससे इस सुतरां ज्ञातक विषय पर प्रकाश पड़ सकेगा : "आचेलक्कुद्दे सियसेज्जाहर रायपिंडकिइ कम्मे । वयजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥ ४२१॥" अर्थवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथाहि आचारप्रणिधौ भणितम्'प्रतिलिखेतू पात्रकम्बलं ध्र वम्' इति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्र वं क्रियते ? आचारस्यापि द्वितीयोऽध्यायो लोकविच(ज)यो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तम्'पडिलेहणं पादपुछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उधि पावेज्ज' इति । तथा वत्थेसणाए वुत्त-'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्वं वा धारेज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे जुग्गिदे दे (?) से दुवे वत्थाणि धरिज्ज पडिलेहणगं विदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासस्स तओ वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं ।' तथा पायेसणाए कथितम्--'हिरिमाणे वा जुग्गिदे वावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए' इति । पुनश्चोक्तं तवैवअलाबुपत्त वा दारुगपत्त वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं अप्प स (ह) रिदं, तथा अ (तह) प्पकारं पात्रं न लाभे सति पडिगहिस्सामि' इति । वस्त्रपाने यदि न ग्राह्म कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? भावनायां योक्तम्-'वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलके तु जिणे' इति । तथा सूत्रकृतस्य पुण्डरीकेऽध्याये कथितम्-'ण कहेज्जा धम्मकहं वत्थपादिहेदु' इति । निषेये = (निशीथे) ऽप्युक्तम्-कसिणाई वत्थकंवलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं' इति । एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कयम् ? इति । अत्रोच्यते-आयिकाणामागमेऽनुज्ञातं वस्त्रम्, कारणापेक्षया भिक्षणाम्, ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परिषहसहने वा अक्षमः स गृह णाति ।"1 अपराजित सूरि ने आराधना की इस गाथा का विश्लेषण करते हुए साधु द्वारा वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता के सन्दर्भ में जो विश्लेषण किया है, श्वेताम्बर-आगम-वाङ्मय के अत्यन्त मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग तथा निशीथ जैसे ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत कर इसे समर्थित करने का प्रयत्न किया है, उससे स्पष्ट है कि इन आगम ग्रन्थों के प्रति वे निःसन्देह श्रद्धावान् थे । साथ-साथ यह भी ध्वनित होता है कि मूल गाथाकार शिवार्य के मस्तिष्क में भी गाथा रचते समय बहुत सम्भव है, ये तथा तत्सम्बद्ध अन्य श्वेताम्बर-आगम-ग्रन्थ रहे हों। क्योंकि दिगम्बरों के मान्य ग्रन्थों में साधु द्वारा वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता के सम्बन्ध में समर्थन नहीं प्राप्त होता। १. आराधनाः विजयोवया उछ्वास ४, पृ० ६११-१२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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