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________________ भाषा और साहित्य ] मार्च (अमागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय (५०१ भार्ष वाक् है, अतः उसे तो उन्होंने लिया ही है, पर, संस्कृत को भी उन्होंने ग्रहण किया है । दर्शन और तत्वज्ञान आदि गम्भीर एवं सूक्ष्म विषयों को विद्वद्भोग्य तथा व्युत्पन्न शैली में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी अप्रतिम विशेषता है । उसका शब्दकोश वैज्ञानिक दृष्टि से विशाल है तथा उसका व्याकरण शब्दों के नव सर्जन की उर्वरता लिए हुए है। उसकी अपनी कुछ विशिष्ट शब्दावली है, जिसके द्वारा संक्षेप में विस्तृत और गहन अर्थ व्याख्यात किया जा सकता है। उसकी विवेचन-सररिण में प्रभावापन्नता और गम्भीरता है। सूक्ष्म और पारिभाषिक (Technical) विश्लेषण की दृष्टि से उसकी अपनी असामान्य क्षमता है। चूर्णिकार द्वारा भाषात्मक माध्यम के रूप में प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत संयोजन के पीछे सम्भवतः इसी प्रकार का दृष्टिकोण रहा हो, अर्थात संस्कृत की इम विशेषतानों से लाभान्वित क्यों न हुअा जाए? धूणियों में किया गया प्राकृत-संस्कृत का मिश्रित प्रयोग 'मणि-प्रवाल-न्याय' से उपमित किया गया है । मणियों और मूगों को एक साथ मिला दिया जाए, तो भी वे पृथक्पृथक् स्पष्ट दीखते रहते हैं । यही स्थिति यहां दोनों भाषाओं की है। রন্ধন ঋী সঘানন। चूणियों में संस्कृत और प्राकृत का सम्मिलित प्रयोग तो हुआ, पर, फिर भी उनमें प्रधानता प्राकृत की रही । पूणियों में यथाप्रसंग अनेक प्राकृत-कथाए दी गयी हैं, जो धार्मिक, सामाजिक किंवा लौकिक जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध हैं। चूरिणकार को जो शब्द विशेष व्याख्येय या विश्लेष्य लगे हैं, उनकी व्युत्पत्ति भी प्रायः प्राकृत में ही प्रस्तुत की गयी है। __ वर्ण्य विषय के समर्थन तथा परिपुष्टता के हेतु स्थान-स्थान पर प्राकृत व संस्कृत के विभिन्न विषयों से सम्बद्ध पद्य उद्धत किये गये हैं । प्राकृत भाषा की क्षमता, अभिव्यंजनाशक्ति, प्रवाहशीलता, लोकजनीनता आदि के साथ भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से पूणियों के अध्ययन की वास्तव में अत्यधिक उपयोगिता है । ফিবা। (নান্ধার आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्या-प्राप्ति, वृहत्कल्प, व्यवहार, मिर्श थ, पंचकल्प, दशाश्रु तस्कन्ध, जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी तथा अनुयोगद्वार पर चूणियों की रचना हुई है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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