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________________ ५..1 आगम और विपिटक : एक अनुशीलन खण्डे । ३ व्यवहार और वृहत्कल्प-माष्य का अध्ययन नितान्त उपयोगी है। इनमें विविध प्रसंगों पर इस प्रकार के उपयोगी संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थों की आचार-शृखला को जोड़ने वाली अनेक कड़ियां प्रकाश में आती हैं । चुण्णि (चू रिण) ওসব ; সথা आगमों पर नियुक्ति तथा भाष्य के रूप में प्राकृत-गाथाओं में व्याख्यापरख ग्रन्थों की रचना हुई । उनमें आगमों का प्राशय विस्तार तथा विशदता के साथ अधिगत किया जा सके, वैसा शक्य नहीं था; क्योंकि दोनों रचनाएं पद्यात्मक थीं । प्रस्तुत: व्याख्या जितनी स्पष्ट, बोधगम्य तथा हृद्य गद्य में हो सकती है, पद्य में वैसी हो सके, यह सम्भव नहीं हो पाता। फिर दोनों (नियुक्ति तथा भाष्य) में संक्षिप्तता का आश्रयण था; अतः प्रवचनकार प्रवक्ता या व्याख्याता के लिए, जैसा कि उल्लेख किया गया है, वह (शैली) लाभकर थी, पर स्पष्ट और विशद रूप में आगमों का हार्द अधिगत करने के इच्छुक अध्येताओं के लिए उनका बहुत अधिक उपयोग नहीं था। अतएव गद्य के रूप में आगमों की व्याख्या रचे जाने का एक क्रम पहले से रहा है, जो चूरिणयों के रूप में प्राप्त है। ___ अभिधान-राजेन्द्रकार ने चूणि का लक्षण एवं विश्लेषण करते हुए लिखा है : प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति तथा विभाषा के रूप में जो अर्थ-बहुल हो, हेय-उपादेय अर्थ का प्रतिपादन करने की महत्ता या विशेषता से जो संयुक्त हो, जिसकी रचना हेतु, निपात तथा उपसर्ग के समन्वय से गम्भीरता लिए हुए हो, जो अव्यवच्छिन्न-श्लोकवत् विराम रहित हो, जो गम-नैगम-नयानुप्राणित हो, उसे चौर्णपद-चूरिण कहा जाता है। এখাখী ঋী পাণ। चूरिणकार ने भाषा के सम्बन्ध में एक नया प्रयोग किया है। प्राकृत जैन दृष्टि से १. व्याकरण के अनुसार शाब्दिक रचना की स्थितियां । २. अत्यबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसग्गर्गभीरं । बहुपायमवोज्छिन्नं, गमणयसुद्ध तु चुनपयं ॥ ..... .... ............................................ -अभिधान-रजेन्द्र तृतीय भाग, पृ० ११९५ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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