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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वागमय । ४९९ नियुक्तियों में प्रसंगोपात्ततया जैनों के परम्परा-प्राप्त आचार-विचार, जैन तत्व-ज्ञान के अनेक विषय, अनेक पौराणिक परम्पराएं, ऐतिहासिक घटनाएं (अंशतः ऐतिहासिक अंशतः पौराणिक), इस प्रकार की विमिश्रित मान्यताएं वरिणत हुई हैं। जैन-संस्कृति, जीवन-व्यवहार तथा चिन्तन-क्रम के अध्ययन की दृष्टि से नियुक्तियों का महत्व है। नियुक्तियों में विशेषतः अर्द्ध-मागधी प्राकृत का व्यवहार हुआ है। प्राकृत की भाषाशास्त्रीय गवेषणा के सन्दर्भ में भी ये विशेषतः अध्येतव्य हैं। भास (भाष्य) आगमों के तात्पर्य को और अधिक स्पष्ट करने के हेतु भाष्यों की रचना हुई । इनकी रचना-शैली भी लगभग वैसी है, जैसी नियुक्तियों की । ये प्राकृत-गाथाओं में लिखे गये हैं । नियुक्तियों की तरह इनमें भी संक्षिप्त विवेचन-पद्धति को अपनाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियों की रचना में अर्द्ध- मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है, इनमें कहीं-कहीं अर्द्ध-मागधी के साथ-साथ मागधी और शौरसेनी प्राकृत के रूप दृष्टिगत होते हैं । বম্বনা : হাবিনা मुख्यतया जिन सूत्रों पर भाष्यों की रचना हुई, वे इस प्रकार हैं-१. निशीथ, २. व्यवहार, ३. वृहत्कल्प, ४. पंच-कल्प, ५. जीत-कल्प, ६. उसराध्ययन, ७. आवश्यक, ८. वशवकालिक, ९. पिण्ड-नियुक्ति तथा १०. औघ-नियुक्ति । निशीथ, व्यवहार और वृहत्कल्प के भाष्य अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्व लिये हुए हैं । इनके रचयिता श्री संघदास गणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं । कहा जाता है, ये याकिनीमहत्तर-सूनु प्राचार्य हरिभद्र सूरि के समसामयिक थे । आवश्यक सूत्र पर लघुभाष्य, महाभाष्य तथा विशेषावश्यक भाष्य की रचनाएं की गयीं। अनेक विषयों का विशद समावेश होने के कारण विशेषावश्यक भाष्य का जैन साहित्य में अत्यन्त महत्व है। इसके रचयिता श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण हैं । जीतकल्प तथा उनके स्वोपज्ञ भाष्य के कर्ता भी श्री जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ही हैं। भाष्य-साहित्य में प्राचीन श्रमरण-जीवन और संघ से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं । निर्ग्रन्थों के प्राचीन आचार, व्यवहार, विधि-क्रम, रीति-नीति, प्रायश्चित्तपूर्वक शुद्धि; इत्यादि विषयों के समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान के सन्दर्भ में निशीय ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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