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भाषा और साहित्य ]
वस्त्रेष
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय
आचारांग के द्वितीय ध तु-स्कन्ध के पंचम अध्ययन का नाम वस्त्रैषणा है । उसमें साधुओं और साध्वियों के लिए वस्त्र ग्रहण के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-निषेध हैं । श्रमण किस-किस प्रकार के वस्त्र ग्रहरण कर सकता है, इस विषय में इस अध्ययन के प्रारम्भ में चर्चा है : "जब भिक्षु या भिक्षुणी को वस्त्र की अभिकांक्षा - आवश्यकता हो, उन्हें एषणीय - निर्दोष वस्त्र की याचना करनी चाहिए। ऊन, पाट, सन, रेशम, प्राक की रूई आदि का वस्त्र भिक्षु के लिए ग्राह्य है । जो भिक्षु तरुण, निरूपद्रव, निरोग तथा स्थिर संहनन हो, उसे एक वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं । साध्वी को चार वस्त्र धारण करना चाहिए - एक दो हाथ विस्तार का, दो तीन-तीन हाथ विस्तार के तथा एक चार हाथ विस्तार का । यदि ऐसे वस्त्र अविद्यमान हों- ---प्राप्त न हो सकें तो एक के साथ दूसरे को सीं लेना चाहिए ।"1
उत्तराध्ययन में अचेलक : वेक
१.
उत्तराध्ययन सूत्र में अचेलक — प्रवस्त्र, सचेलक --- सवस्त्र का वर्णन करते हुए कहा है : "कभी जिन - कल्पावस्था में भिक्षु वस्त्र धारण नहीं करता तथा कभी स्थविर-कल्पावस्था में वह वस्त्र धारण करता है । इस प्रकार के — जिन कल्प स्थविर कल्प-रूप हितावह धर्म को जो जानता है, वह खेद - खिन्न नहीं होता ।"3
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हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अधापरिजुलाई वस्थाइं परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवीयं आगममाणे । तवे से अभिमनाए भवति ।
- आचारांग सूत्र, प्रथम अ त स्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ४.१-२ सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकलेज्जा वत्थं एसित्तए । से ज्जं पुण वत्थं जाज्जा संजहा— जंगियं वा, भंगियं वा, सायं वा, पोत्तयं वा, खोमियं वा, तूलकर्ड वा तहप्पगारं वत्थं । जे णिग्गंथे तरुणे, जुगवं बलबं, अप्पायं के, थिरसंघपणे से एवं वत्थं धारेज्जा, णो बितियं । जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा-एगं वुहत्थवित्थारं, दो तिहत्यवित्थाराओ, एगं चउहत्यवित्थारं, एएहिं वत्थेहि अविज्जमारोह अह पच्छा एगमेगं सेसीविज्ना ।
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-आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुत-स्कन्ध, अध्ययन ५, उद्दे शक १.१ एगया अचेलए होइ, सचेले या वि एगया । एयं चम्महियं णन्या, गाणी णों परिदेवए ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २.१३
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