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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : २
उसके पास न रहें तो वह एषणीय वस्त्रों की याचना करें। यह साधु-प्राचार है । जब वह जाने कि अब हेमन्त-काल व्यतीत हो गया है, ग्रीष्म-काल आ गया है, तब वह परिजीर्ण वस्त्र परिष्ठापित कर दे। कुछ–उनमें से जो ठीक हो, उसे रख ले । वस्त्र लम्बा हो तो उसे छोटा कर ले अथवा एक शाटक-एक वस्त्र युक्त रहे अथवा निर्वस्त्र रहे। यों सर्वथा लाघव-हल्केपन से सहज भाव से आचरण करता हुआ भिक्षु अपने तप की वृद्धि करता है।"
तीन वस्त्रों का प्रसंग
तीन वस्त्रों के सम्बन्ध में इस प्रकार चर्चा है : "जिस भिक्षु के एक पात्र एवं तीन वस्त्र रखने की प्रतिज्ञा है, उसके मन में ऐसी चिन्ता नहीं होती कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करू । यदि उसके अपने नियमानुसार परिमाण में वस्त्र न हों तो वह एषणीय वस्त्र की याचना करें। जैसे मिल जाये, पहन ले । किन्तु वह उन्हें धोए नहीं, रंगे नहीं, धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्र पहने नहीं । जब ग्रामानुगम विचरण करे, अपने वस्त्र छिपाये नहीं।' यह साधु का प्राचार है। यदि भिक्षु ऐसा जाने कि हेमन्त-काल व्यतिक्रान्त हो गया है, ग्रीष्म-काल प्रतिपन्न है तो वह अपने परिजीर्ण वस्त्र परठ दे। उनमें से कुछ—जो उपयोग में लेने योग्य हों रख ले । अथवा दो वस्त्र रख ले या एक वस्त्र रख ले या सर्वथा निर्वस्त्र रहे । ऐसा कर वह अपने तप को उद्दीप्त बनाता है।"
१. जे भिक्खू वोहिं वत्थेहि परिवुसेति पाय तइएहि, तत्स गो एवं भवति-तितियं वत्थं
जाइस्सामि । से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा जाव । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं । अह पुण एवं जाणेज्जा-उवक्ते खलु हेमंते, गिम्हे पडिपन्ने, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिवेज्जा, अदुवा संतत्त्तरे, अदुआ ओमचेलए, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवति ।
---आचारांग सूत्र, प्रथम अ तस्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ५.१-२ २. यहां अत्यन्त साधारण, अल्प-मूल्य वस्त्र का आशय है, जिसे चोर, दस्यु आदि के भय
से छिपाना न पड़े। ३. जे भिक्खू तिवयहि परिसिते पाय चतुत्थेहि तस्स णं णो एवं भवति-उत्थं वत्थं
जाइस्सामि से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा। अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा, जो धोविज्जा, णो रएज्जा, णो धोतरत्ताई वत्थाई धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामंतरेसु, भोमचेलए । एवं खु वत्व धारिस्स सामग्गि। अह पुण एवं जायेज्जा-उबतिक्कते खलु
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