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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
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अभिप्रेत
भयावह तथा दारुण कष्ट सह जाने वाला भी लज्जा को जीत पाने में अपने को असमर्थ पाता है, कितना आश्चर्य है। वस्तुतः लज्जा के साथ चाहे सुषुप्त ही सही, अहं का भाव जुड़ता है । मैं कैसा दीखूगा, मेरा व्यक्तित्व फबेगा या नहीं, मैं कहीं हीन तथा कुत्सित तो नहीं लगूगा, कुछ ऐसे मनोभाव होते हैं, जो दारुण व भीषण दैहिक कष्टों को हंसते-हंसते झेल लेने वाले को भी विचलित कर देते हैं। भिक्षु इस प्रकार के विचलन से ऊंचा उठ जाये, सूत्रकार ने इसे बांछित माना है और पुनः अचेलक होने की बात कही है । साथसाथ फिर यह स्मरण कराया है कि उसे तृण, शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि से उत्पन्न कष्टों को आत्म-बल के साथ सहते जाना है।
दैहिक कष्ट तथा प्रातिकूल्य से आत्मा का- स्व का पार्थक्य मानते जाने की मनोभूमि साधक की बनती जाये, सूत्रकार का ऐसा अभिप्रेत है। . . एक शाटक : स्त्र का प्रसंग
आचारांग में उल्लेख है : “जो भिक्षु एक पात्र के साथ एक ही वस्त्र धारण किये रहने की प्रतिज्ञा लिए हुए है, उसे यह चिन्ता नहीं होती कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करू । यदि अपेक्षित हो—वह एक वस्त्र भी उसके पास न रहे तो वह एषणीय–लेने योग्य निर्दोष वस्त्र की याचना करे । जिस प्रकार का निर्दोष वस्त्र मिल जाये, धारण करे । जब ग्रीष्मकाल प्रतिपन्न हो जाये-आ जाये तो उस परिजीर्ण वस्त्र को परठ दे अथवा एक शाटकवस्त्र युक्त रहे अथवा अचेलक-प्रवस्त्र रहे। इस प्रकार अपने तपस्वी जीवन को वद्धित करता जाये।
दी वस्त्रों का प्रसंग .. श्रमण के दो वस्त्रों के सम्बन्ध में आचारांग में इस प्रकार वर्णन किया गया है : "जो भिक्षु एक पात्र तथा दो वस्त्र धारण किये रहने का नियम लिए हुए है, उसको यह चिन्ता नहीं होती कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करू। यदि उसके नियमानुरूप वस्त्र
१. जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिते पायबितिएण, तस्स गो एवं भवइ-बितियं वयं
जाइस्सामि । से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहियं वा वत्थं धारेज्जा, जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुभं वत्थं परिठवेज्जा, अदुवा एग साडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
-आचारांग सूत्र, प्रथम श्रु तस्कन्ध, अध्ययन ८, उद्देशक ६.१
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