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________________ ड् आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ૪૨ | प्रश्न ही नहीं रहता । फलतः जो मुनि नग्न रहते हैं, उनके मन में वस्त्र के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं उठेगी अर्थात् अचेलकता — निर्वस्त्रता की मुख्य उपयोगिता यह है कि उससे वस्त्र-संपृक्त आवश्यकताओं तथा तदुद्भुत चेष्टाओं का अवकाश ही नहीं रहता, जबकि सवस्त्र मुनि को, वस्त्रों में आसक्त न होते हुए भी आवश्यकता की दृष्टि से, जैसा कि सूत्रकार ने इंगित किया है, वैसा सोचना तो होता ही है । खण्ड : २ सूत्रकार का दूसरा आशय यह है कि परिषह विजय और दैहिक- कष्ट सहन की दृष्टि से निर्वस्त्र मुनि से अधिक श्राशा की जाती है। खुली देह पर सहसा श्रा पड़ने वाले कष्टों को समभाव से, सहजता से सहते जाने के लिए उसे सदा सन्नद्ध रहना होता है, जो बड़े साहस एवं आत्म-दृढ़ता से साध्य है । यों परिषह तथा प्रतिकूल स्थिति में अपने मन को जरा भी भारी बनाये बिना हल्केपन से जो उन्हें सहता जाता है, उसका तपस्वी जीवन उद्दीप्त होता जाता है । लज्जा-निवृत्ति हेतु कटिबन्ध का स्वीकार अचेलक भिक्षु के जीवन के एक प्रसंग को उद्दिष्ट कर आचारांग में वर्णन है : "जो भिक्षु निर्वस्त्र रहता है, वह सोचे, मैं तृण-स्पर्श, शीत-स्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस, मच्छर श्रादि के दंश तथा और भी वैसे अनेक प्रकार के जो परिषह या कष्ट हैं, उन्हें तो खुशीखुशी सह सकता हूं, पर लज्जा का परिहार नहीं सह सकता - लज्जा को मैं नहीं जीत पाया तो उस भिक्षु को कटिबन्ध - चोलपट्टा धारण कर लेना चाहिए । फिर यदि वह लज्जा - विजय में समक्ष हो जाये तो उसे चाहिये कि वह उस वस्त्र को छोड़ दे तथा तृरणस्पर्श, शीत- स्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस व मच्छर प्रादि दंश जैसे परिषहों को सहज भाव से सहता जाये । अपने तप को प्रशस्त करता जाये ।"1 Jain Education International 2010_05 संचाएमि अहियासत्तए, १. जे भिक्खु अचेले परिवसिते, तस्स णं एवं भवति-चाएमि अहं तणफार्स अहियासित्तए, सोफा अहियासितए, तेउफासं अहियासित्तए, समसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अन्नतरे विरुवरुवे फासे अहियासित्तए, हिरिपंडिच्छावणं च णो एवं से कप्पति कडिबंधणं धारितए अदुवा तत्थ परक्कमंतं फुसंति, सियफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, वंसमसगफासा farara फासे अहियासेति, अचेले लाघविषं आगममाणे, तबे से अभिसमन्नागए भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति एगयरे अण्णयरे भवति । - आचारांग सूत्र, प्रथम श्र तस्कन्ध, अध्ययन व उद्देशक ७.१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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