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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ५४ ___ दोनों माम्नायों के दृष्टिकोण में एक सबसे बड़ा भेद है । दिगम्बरों का एकान्त-रूप से यह कथन है कि मुनि-धर्म में निर्वस्त्रता सर्वथा अनिवार्य है। कोई एक धागा मात्र भी रख ले तो वह किसी भी स्थिति में मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता; क्योंकि परिमाण में कितना ही क्यों न हो, वह परिग्रह है । इसके विपरीत श्वेताम्बर जिन-कल्प एवं स्थविर-कल्प के रूप में निर्वस्त्रता तथा सवस्त्रता- दोनों को स्वीकार करते हैं । अनासक्त भाव से विहित वस्त्र धारण किये रहने से मुनित्व व्याहत नहीं होता। उनके साहित्य में भी इस प्राशय के उल्लेख हैं, जिनके अनुसार विहित वस्त्र परिग्रह में नहीं आते । श्वेताम्बरों का यह पहलू काफी महत्वपूर्ण है । इस पर सूक्ष्म दृष्टि से परिशीलन तथा विमर्षण अपेक्षित है। श्वेताम्बर-पागम-वाङमय में इस सम्बन्ध में जो उल्लेख है, अंशतः उसे प्रस्तुत करते हुए यहां उस पर ऊहापोह किया जा रहा है।
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आचारांग में बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है : "जो भिक्षु अचेलक होता है, उसे यह नहीं सोचना होता कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, मैं वस्त्र की, धागे की, सूई की याचना करू', वस्त्र यों सांधू-जोडू, सिलाई करू, उसे बड़ा करू', छोटा करू, उसे पहनू, प्रोस् । निर्वस्त्र भिक्षु के तृण, घास प्रादि तीक्ष्ण वस्तुओं के स्पर्श (माघात), शीतस्पर्श, उष्ण-स्पर्श, डांस, मच्छर आदि कीटाणुओं द्वारा खुली देह पर दंश-इत्यादि और भी विविध प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल परिषह होते हैं, जिन्हें वह लाघवपूर्वक-परवाह न करते हुए उपेक्षा भाव से सहन करता है तथा अपने तपस्वी जीवन को बढ़ाये चलता है।"
सूत्रकार के कथन के यहां दो दृष्टिकोण प्रतीत होते हैं । पहला यह है कि जब कोई वस्तु रखी जाती है, तो उसके सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक प्रकार के संकल्पविकल्प उठते रहते हैं। यदि वह वस्तु ही नहीं है तो तत्सम्बद्ध संकल्प-विकल्प उठने का
१. जे अचेले परिवुसए, तस्स णं भिक्खुस्स गो एवं भवइ-परिजिष्णे मे वत्थे, वत्थे . जाइस्सामि, सुत्त जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, - चोक्कसिस्ससामि, परिहरिस्सामि, पाउणिस्सामि । अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेल - तणफासा फुसति, सीयफासा फुसति, तेउफासा फुसति, वंसमसगफासा फुसंति, एगयरे
अन्नयर विश्वरुवे फासे अहियासेति, अचेले लाघवं आगममाणे, तवेसे अभिसमण्णागए भवति ।
-आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ० ६, उद्दे० ३, २-३
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