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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : ३
तात्पर्य
आचारांग सूत्र में वस्त्र धारण करने, कितना कौनसा करने तथा न करने आदि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण विवेचन किया गया है, जो ऊपर निर्दिष्ट कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट है।
उपर्युक्त वर्णन में वस्त्र के ग्रहण-अग्रहण के आधार पर मूल साधुत्व की दृष्टि से उच्चता-अनुच्चता का भाव दृष्टिगत नहीं होता। साधु के सर्व-सामान्य, सर्व-स्वीकृत, मूलगुणाधृत स्तर में इससे भेद नहीं पड़ता। पर, जैन धर्म तो तपःप्रधान धर्म है । उसके साधक का अधिकाधिक कर्म-निर्जरा की ओर सदैव ध्यान रहता है। क्योंकि उसका चरम ध्येय अन्ततः कृत्स्न कर्म-क्षय से ही सधने वाला है। अतः अचेलकता या निर्वस्त्रता का जिस भाव से वर्णन हुआ है, जहां उस ओर विशेष रूप से निर्देश किया गया है, वहां साधक को निर्जरा या तप की ओर अधिकाधिक उन्मुख करने का मुख्य अभिप्राय रहा है। दारुणातिदारुण परिषहों को सहज भाव से सह जाने वाले साधक की जो अपनी तपोमूलक तथा सहिष्णुता-संभृत विशेषता होती है, उसका तो महत्व है ही।
भिक्षुओं के लिए वस्त्रों की संख्या, माप आदि की अधिकतम सीमा का अपना विधान है, पर एक वस्त्र, दो वस्त्र, तीन वस्त्र आदि रखे जाने के जो ऊपर उल्लेख हुए हैं, वे इस बात के द्योतक हैं कि अधिक की स्वीकृति के बावजूद साधक भिक्षु अपनी वैराग्यमय, तितिक्षु-वृत्ति के कारण परिधेय वस्त्रों की संख्या और भी कम करते जाते थे। कोई तीन से काम चलाता था, कोई दो से काम चलाता था और कोई मात्र एक ही से। सूत्रकार ने तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र आदि के वर्णन के सन्दर्भ में श्रमण को वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का जो संकेत किया है, वहां भी उनका भाव क्रमशः विकासोन्मुख निर्जरा के मार्ग पर साधक को अग्रसर करने का है।
अंगुत्तर-निकाय में एक शाटक-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थों की चर्चा आई है। महावीर और बुद्ध की समसामयिकता के कारण दोनों के वाङमय में एक-दूसरे के सम्बन्ध में किये गये उल्लेख गवेषणा की रष्टि से काफी महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। अंगुत्तर-निकाय में आये इस उल्लेख से ध्वनित होता है कि महावीर के श्रमणों में उस समय कम-से-कम वस्त्र से काम चलाने की वृत्ति अधिक उभर रही थी।
१. अंगुत्तर-निकाय, जिल्व ३, पृ० ३५३
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