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________________ ५४७ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय বাহ-বহা : সাবীহ-শবা जैन श्रमण के निर्वस्त्रता एवं सवस्त्रतामूलक आचार-पक्ष पर विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया है, करते आ रहे हैं । कतिपय विद्वानों का ऐसा अभिमत है कि निर्वस्त्र श्रमणाचार का प्रवर्तन वस्तुतः भगवान् महावीर से हुआ। उनसे पूर्व भगवान् पार्श्व की परम्परा सवस्त्र थी। उनके अनुसार महावीर के श्रमणों के लिए प्रयुक्त निर्ग्रन्थ शब्द निर्वस्त्रता या वस्त्रात्मक परिग्रह से निर्गतता का सूचक है । কী জীব পীনস জা পিনন पार्श्व-परम्परा तथा महावीर-परम्परा के विवादास्पद विषयों के समाधान पर प्रकाश डालने वाला उत्तराध्ययन सूत्र में परिणत एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। उसके उस अंश की, जो प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध है, यहां चर्चा कर रहे हैं। प्रसंग इस प्रकार है : “जगत्पूज्य, सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक पार्श्व नामक तीर्थंकर हुए।" "जगत् में धर्म का उद्योत करने वाले भगवान् पाश्वं के महायशस्वी केशी नामक शिष्य थे, जो ज्ञान एवं चारित्र के पारगामी थे। वे अवधिज्ञानी तथा श्रुत-ज्ञानी थे। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे एक बार अपने शिष्य-समुदाय सहित श्रावस्ती नगरी में माये । उस नगर के उपकण्ठ में तिन्दुक नामक उद्यान था। वहां श्रमण केशी प्रासुकजीव-जन्तु रहित-निर्दोष स्थान में टिके व प्रवास करने लगे।" १. जिणे पासित्ति नामेणं, अरहा लोग इओ। संबुद्धप्पा य सम्वन्नू, धम्मतित्थयरे जिणे ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, २३.१ २. तस्स लोगपदीवस्स, आसी सीसे महायसे । केसीकुमार समणे, विजाचरणपारगे ॥ मोहिनाणसुए बुद्ध, सीससंघसमाउले । गामाणगामं रीयंते, सावस्थि नगरिमागए ॥ तिन्दुयं नाम उजाणं, तम्मी नगरमण्डले । फासुए सिज्जसंधारे, तत्थ वासुमुवागए ॥ -बही, २३.२-४ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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