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________________ १६८ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन . . [षण। २ २. स्थितिविभक्ति, ३. अनुभागविभक्ति, ४. प्रेदेश विभक्ति-झीणाझीणस्थित्यन्तिक, ५. बन्धक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुः स्थान, ९. व्यंजन, १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. संयमासंयमलब्धि, १३. संयमलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशामना तथा १५. चारित्रमोहक्षपणा । अधिकारों के नाम से ही यह सुज्ञेय है कि प्रात्मा की अन्तर्वृत्तियों के विश्लेषण तथा परिष्करण की दृष्टि से यह ग्रन्थ कितना महत्वपूर्ण है। খবথঙাগ »ী পাশ। मधुरा के आस-पास का क्षेत्र कभी शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध रहा है। प्राकृतकाल में वहां जो भाषा प्रचलित रही है, वह शौरसेनी प्राकृत कही जाती है। यह भाषा शूरसेन जनपद के अतिरिक्त पूर्व में वहां तक, जहां से अर्द्धमागधी का क्षेत्र शुरू होता था तथा पश्चिम में वहां तक जहां से पैशाची का क्षेत्र शुरू होता था, प्रसृत रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि एक समय ऐसा रहा, जब यह भाषा उत्तर भारत के मध्यवर्ती विस्तृत भू-भाग में प्रयुक्त थी। दिगम्बर प्राचार्यों द्वारा अपने धार्मिक साहित्य के सर्जन में जिस प्राकृत का प्रयोग हुमा है, लक्षणों से यह शौरसेनी के अधिक निकट है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विशेष रूप से परिशीलनीय हैं। दिगम्बर-सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र दक्षिण भारत रहा है। जिसके साथ अनेक प्रकार के कथानक जुड़े हैं, वह उत्तर भारत में व्याप्त द्वादशवर्षीय दुष्काल एक ऐसा प्रसंग था, जिसके परिणामस्वरूप घटित घटनाओं के कारण जैन संघ दो भागों में बंट गया । उत्तर में जो जैन संघ रहा, अधिकांशतया वह आगे चलकर श्वेताम्बर के रूप में विश्रुत हो गया। वह परम्परागत आगमों की, चाहे अंशतः ही सही, प्रविच्छिन्नता में विश्वास रखता रहा । उसकी भोर से विभिन्न समयों में प्रायोजित आगम वाचनाओं द्वारा अपने अद्धमागधी भागम-वाङ्मय को सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न भी चला। फलतः वह वाङमय सुरक्षित रह भी सका। श्वेताम्बर मुनियों के माध्यम से प्रागे वह स्रोत प्रवहणशील रहा । दिगम्बर मुनियों की स्थिति दूसरी थी। उन्होंने महाबीर-भाषित द्वादशांग-वाडमय को विच्छिन्न माना। इसलिए तदनुस्यूत भाषा के साथ भी उनका विशेष सम्बन्ध न रह सका । इस सम्प्रदाय के विद्वानों को, जब साहित्य-सर्जन का प्रसंग माया तो शौरसेनी का Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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