SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य] आषं (अद्ध मागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३५६ परिणत होता है, इसका विशेषावश्यक भाष्य में बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है : . 'तप, नियम तथा ज्ञान रूपी वृक्ष पर आरूढ़ अमित-अनन्त-सम्पन्न केवल ज्ञानी भव्य जनों को उद्बोधित करने के हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त प्रथन करते हैं।'' वृक्ष के दृष्टांत का विशदीकरण करते हुए भाष्यकार लिखते हैं : 'जैसे, विपुल धनखण्ड के मध्य एक रम्य, उन्नत तथा प्रलम्ब शाखान्वित कल्प-वृक्ष है। एक साहसिक व्यक्ति उस पर आरूढ़ हो जाता है। वह वहां अनेक प्रकार के सुरभित पुष्पों को ग्रहण कर लेता है। भूमि पर ऐसे पुरुष हैं, जो पुष्प लेने के इच्छुक हैं और तदर्थ उन्होंने वस्त्र फैला रखे हैं। वह व्यक्ति उन फूलों को फैलाये हुए वस्त्रों पर प्रक्षिप्त कर देता है। वे पुरुष अन्य लोगों पर अनुकम्पा करने के निमित्त उन फूलों को गूथते हैं। इसी तरह यह जगत् एक वन-खण्ड है। वहां तप, नियम और ज्ञानमय कल्प-वृक्ष है। चौंतीस अतिशय-युक्त सर्वज्ञ उस पर आरूढ़ हैं । वे केवलो परिपूर्ण ज्ञान-रूपी पुष्पों को छद्मस्थता रूप भूमि पर अवस्थित शान रूपी पुष्प के अर्थी - इच्छक गणधरों के निमल बुद्धिरूपो पट पर प्रक्षिप्त करते हैं।" १. तब-नियम नाणरूवखं आरूढो केवली अभियनाणी। तो मुयइ नाणबुट्टि भवियजणविबोहणाए ॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिव्हिडं निरवसेसं । तित्थपरभासियाहं गंथंति तओ पवयणट्ठा ।। -विशेषावश्यक भाष्य, १०६४-६५ २. रुक्खाइरूवयनिरुवणत्य मिह दव्वरुक्ख दिढतो । जह कोई विउलवणसंऽमज्झयारयिं रम्म । तुगं विडलवरचं साइसओ कप्परुक्खमारूढो । पज्जवगहियबहुविहसुसुरभिकुसुमो ऽणुकंपाए । कुसुमत्थिभूमिचिष्ट्रिय पुरिसपसारिय पडेसु पक्खिवइ । गंयंति तेऽवि घेत सेसजणाणुगहड्ढाए । 'लोगवणसंडमज्झे चौत्तीसाइसयसंपदोवेओ। तब-नियम-नाणाम इयं स कप्परुक्खं समारूढो ॥ मा होज्ज नाणगहणम्मि संसओ तेण केवलिग्गहणं । सोऽवि चउहा तओऽयं सवण्णू अभियनाणित्ति ॥ पज्जतनाणकुसुमो ताइ छउमत्थभूमिसंथेसु । नाणकुसुमत्यिगणहरसियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ ।। -विशेषावश्यक भाष्य, १०९६-११०१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy