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________________ ३६० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ एक प्रश्न : एक समाधान भाष्यकार ने स्वयं ही प्रश्न उपस्थित करते हुये इसका और विश्लेषण किया है, जो पठनीय है : "सर्वज्ञ भगवान् कृतार्थ है। कुछ करना उनके लिये भेष नहीं है। फिर वे धर्मप्ररूपणा क्यों करते हैं ? सर्वज्ञ सर्व उपाय और विधि-वेत्ता हैं । वे भव्य जनों को ही बोध देने के लिए ऐसा करते हैं, अभव्यों को क्यों नहीं उद्बोधित करते ?" समाधान प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं : "तीर्थकर एकान्त रूप से कृतार्थ नहीं हैं; क्योंकि उनके जिन नाम कम का उदय है। वह कम वन्ध्य या निष्फल नहीं है; अतः उसे क्षोण करने के हेतु यही उपाय है। अथवा कृतार्थ होते हुये भी जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है, वैसे हो दूसरों से उपकृत न होकर भी परोपकारपरायणता के कारण दूसरों का परम हित करना उनका स्वभाव है । कमल सूर्य से बोध पाते हैं-विकसित होते हैं तो क्या सूर्य का उनके प्रति राग है ? कुमुद विकसित नहीं होते, तो क्या सूर्य का उनके प्रति द्वेष है ? सूर्य की किरणों का प्रभाव एक समान है, पर, कमल उससे जो विकसित होते हैं मौर कुमुद नहीं होते, यह सूर्य का, कमलों का, कुमुदों का अपना अपना स्वभाव है। उगा हुआ भो प्रकाशधर्मा सूर्य उल्लु के लिये उसके अपने दोष के कारण अन्धकार रूप है, उसी प्रकार जिन रूपी सूर्य अभषों के लिये बोध-रूपी प्रकाश नहीं कर सकते । अथवा जिस प्रकार साध्य रोग को चिकित्सा करता हुआ वैद्य रोगी के प्रति रागो और असाध्य रोग की चिकित्सा न करता हुआ रोगो के प्रति द्वेषी नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार भव्य जनों के कम-रोग को नष्ट करते हुए जितेन्द्ररूपी वैद्य उसके प्रति रागी नहीं होते तथा अभव्य जनों के असाध्य कम-रूपी रोग का अपचय न करने से उसके प्रति वे द्वेषी नहीं कहे जा सकते। जसे, कलाकार अनुपयुक्त काष्ठ आदि को छोड़ कर उपयुक्त काठ आदि में रूप-रवा करता हुआ अनुपयुक्त काष्ठ के प्रति द्वेषी और उपयुक्त काष्ठ के प्रति अनुरागी नहीं कहा जाता, उसी प्रकार योग्य को प्रतिबोध देते हुए और अयोग्य को न देते हुए जिनेश्वर देव न योग्य के प्रति रागी और न अयोग्य के प्रति द्वषो कहे जा सकते हैं ।1 १. कोस कहेइ कयत्थो किं वा भवियाण चेव बोहत्थं । सवोपायत्रिहिण्णे किं वाऽभव्वे न बोहैइ ॥ नेगतेण कयत्थो जेणोदिन्नं जिणिभ्वनाम से । तदवंझफलं तस्स य ख वणोवाओऽयमेव जओ ॥ जं व कयत्यस्स वि से अगुवकयपरोवगारिसाभव । परमहियदेसयत्तं भासयसाभवमिव रविणो । किं व कमलेसु राओ रविणो बोहेइ जेण सो ताई। कुमुएसु व से दोसो जं न विवुज्झति से ताई॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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