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________________ ३५८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [ खण्ड : २ व्याख्याताओं ने इसका अर्थ अन्य सूत्रों अथवा शास्त्रों के मिलते-जुलते या सामानार्थक पाठ को चालू या क्रियमाण-उच्चार्यमाण पाठ से मिला देना किया है, जो कोशकारों द्वारा की गयी व्याख्या से मिलता हुआ है। शास्त्र पाठ या सूत्रोच्चारण में आम्रडन, अत्यधिक आर्मेडन व्यत्यानंडन नहीं होना चाहिए। १४, प्रतिपूर्ण-शीघ्रता या अतिशीघ्रता से अस्त-ध्यस्तता आती है। जिससे उच्चारणीय पाठ का अंश छूट भी सकता है। पाठ का पूर्णरूप से समग्रतया, उसके बिना किसी अंश को छोड़े उच्चारण करना चाहिए । १५. प्रतिपूर्ण घोष - पाठोच्चारण में जहां लय के अनुरूप ( Rhythmically) बोलना आवश्यक है, वहां ध्वनि का परिपूर्ण या स्पष्ट उच्चारण भी उतना ही अपेक्षित उच्चार्यमाण है। पाठ का उच्चारण इतने मन्द स्वर से न हो कि उसके सुनाई देने में भी कठिनाई हो। प्रतिपूर्ण घोष समोचीन, संगत, वांछित स्वर से उच्चारण करने का सूचक है । जैसे, मन्द स्वर से उच्छवारण करना पज्यं है, उसी प्रकार अति तीन स्वर से उच्चारण करना भी दूषणीय है । १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त-कण्ठ+ओष्ठ+विप्र+मुक्त के योग से यह शब्द निष्पन्न हुआ है। मुक्त का अर्थ छूटा हुआ है। जहां उच्चारण में कम सावधानी बरती जाती है, वहां उच्चायं माणी वर्ण कुछ कण्ठ में, कुछ होठों में बहुधा अटक जाते हैं। जैसा अपेक्षित हो, पैसा स्पष्ट और सुबोध्य उच्चारण नहीं हो पाता। पाठोच्चारण के सम्बन्ध में जो सूचन किया गया है, एक ओर वह उच्चारण के परिष्कृत रूप ओर प्रवाह की यथावत्ता बनाये रखने के यत्न का द्योतक है, वहीं दूसरी ओर उच्चारण, पठन, अभ्यास पूर्वक अधिगत या स्वायत किये गये शास्त्रों को यथावत् स्मृति में टिकाये रखने का भी सूचक है। इन सूचनाओं में अनुक्रम, व्यतिक्रम तथा घुत्का से पाठ करना, पाठ में किसी वर्ण को लुन न कराना, अधिक या अतिरिक्त अक्षर न जोड़ना, पाठगत अक्षरों को परस्पर न मिलाना या किन्हीं अन्य अक्षरों को पाठ के अक्षरों के साथ न मिलाना आदि के रूप में जो तथ्य उपस्थापित किये हैं, वे वस्तुतः बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसके लिये सम्भवतः यही भावना रही हुई प्रतीत होता है कि प्रवण-परम्परा से उतरोतर गति तोल द्वादशांगमय आगम-बाङमय का स्रोत कभो परिवर्तित, विचलित तथा विकृत न होने पाए । श्रत को उद्भव सर्वज्ञ ज्ञान की पहषणा या अभिव्यसना क्यों करते हैं, वह आगम रूप में किस प्रकार ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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