SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य मध्यकालीन भारतीय आय भाषाएं [ १५१ छठी शती के सुपसिद्ध काव्यशास्त्रो दण्डी ने काव्यादर्श' में प्राकृतों की भी चर्चा की है। उन्होंने महाराष्ट्रो ( महाराष्ट्राश्रया ), शौरसेनी, गौड़ी और लाटी; इन चार प्राकृतों का उल्लेख किया है। __ आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वणित चार भाषामों के अतिरिक्त आर्ष, चूलिका पेशाची और अपभ्रश; इन तीनों को प्राकृत भेदों में और बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अद्धमागधी को आर्ष कहा है। त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत-भेदों का प्रतिपादन किया है। अन्तर केवल इतना-सा है, इनमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अद्धमागधी ( जो जैन आगमों की भाषा है ) के प्रति विशेष आदरपूर्णभाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष- नाम से अभिहित किया । मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपनश और पैशाच; इन चार भागों में बांटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है : १. भाषा-महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी । २. विभाषा-शाकारी, चाण्डालो, शबरी आभीरिका और टाक्की । ३ अपभ्रंश-नागर, ब्राचड़ तथा उपनागर । ४. पैशाच-कैकय, शौरसेन एवं पांचाल । नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, आभार, चाण्डाल, शबर, द्रमिल, आन्ध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है। मार्कण्डेय ने भाषा, विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत-चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं, छः धिभाषाओं, ग्यारह पिशाच-भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा की है। इनमें महाराष्ट्री, आधन्ती, शौरसेनी, अद्ध१. महाराष्ट्राश्रयां भाषां, प्रकृष्ट प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां, सेतुबन्धादि यन्मथम् ॥ शौरसेनी च गौडो च, लाटी चान्या च तादृशी। . याति प्राकृतमित्येवं, व्यवहारेषु सन्निधिम् ॥ -काव्यादर्श, २३४-३५ २. ऋषीणामिदमार्षम् । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy