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[खण्ड : २.
. सद्धि
आगम और ब्रिपिटक : एक अनुशीलन
सघ्रीम् विदुः घ्रस
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घिसु
रुक्षव
उपयुक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि प्राकृतों का उद्गम वैदिक भाषा-काल से प्राग्वर्ती किन्हीं बोलचाल की भाषाओं या बोलियों से हुआ, जैसे कि उन्हीं में से किसी बोली के आधार पर वैदिक भाषा अस्तित्व में आई।
प्राकृत के प्रकार
प्राकृतें जीवित भाषाए' थीं। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण स्वभाषप्त: उनके रूपों में भिन्नता आई। उन ( बोलचाल को भाषाओं या बोलियों ) के आधार पर जो साहित्यिक प्राकृत विकसित हुई; उनमें भिन्नता रहना स्वाभाविक था। इस प्रकार प्रादेशिक या भौगोलिक आधार पर प्राकृतों के कई भेद हुए । उनके नाम प्रायः प्रदेश-विशेष के आधार पर रखे गये ।
नाचार्य भरता ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, वाह्नीका और दाक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है। प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृतप्रकाश' के प्रणेता पररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पेशाची; इन भेदों का वर्णन किया है। चण्ड ने मागधी को मागधिका और पैशाची को पैशाचिकी के नाम से उल्लिखित किया है।
developed out of Sanskrit, as is generally held by Indian Scholars and Hobber, Lassen, Bhandarkar and Jacoby, All the Prakrit languages have a series of comman grammatical and lexical characteristics with the vedic language and suchare signifi
cantly missing from Sanskrit. १. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी ।
वालोका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकोर्तिताः॥ -नाट्यशास्त्र; १७-१८ २. प्राकृतप्रकाश, १०. १-२, ११. १, १२. ३२ ३. पैशाचिक्यां रणयोलनौ । मागविकायां रसयोलशो ॥
-प्राकृत-लक्षण ३. ३८-३९ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
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