________________
१५२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ मागधी, वाहीकी, मागधी, प्राच्या तथा दाक्षिणात्या; ये माठ भाषाएं, छः विभाषाओ में से द्राविड़ और ओज; ये दो विभाषाए, ग्यारह पिशाच भाषाओं में से कांचीदेशीय, पाण्ढ्य, पांचाल, गौड़, मागध, ब्राचड़, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़; ये दश पिशाच-भाषाए तथा सताईस अपभ्रंशों में ब्राचड़, लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उडू, हैव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिंग, प्राच्य, कार्णाट, काञ्च, द्राविड़, गोर्जर, आभीर और मध्यदेशीय; ये तैबीस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं। जिन-जिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन था, वं बोलियां उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं। इतनी लम्बी सूची से आश्चर्यान्धित होने को आवश्यकता नहीं है। किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्नभिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और प्रदेश के नामों के अनुरूप उन उपभाषाओं या बोलियों के नाम पड़ जाते हैं। यद्यपि किसी एक भाषा की इस प्रकार की उपभाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नही होता, पर, यत्किंचित भिन्नता तो होती ही है। उदाहरण के लिए राजस्थानी भाषा को लिया जा सकता है। सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है। पर, बीकानेर-क्षेत्र में उसका जो रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है । जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप उससे और भिन्न है । इसी प्रकार चित्तौड़, डूगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर-मेरवाड़ा, कोटा-बूदी आदि हाड़ोती का क्षेत्र, जयपुर या ढूंढाड़ का भाग, अलवर सम्भाग, भरतपुर और बोलपुर मण्डल; इन सबमें जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियां थोड़ी-बहुत भिन्नता लिये हुए हैं। कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं, परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भूभागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण अपनी क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक भिन्नताओं या विशेषताभों के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनको बोलियों पर पृथक्-पृथक् प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य मा ही जाता है। पिशाच-भाषाओं और अपनशों के जो अनेक भेद उल्लिखित किये गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रंश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उपबोलियों के सूचक हैं।
प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर विस्तृत विचार आगे किया जाएगा। यहां तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन मात्र किया गया है ।
प्राकृतों का विकास : विस्तार : पृष्ठभूमि
पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही कुछ भेद उपलब्ध होते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे साजाओं के पुराण-प्रसिद्ध युद्धों की
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org