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भाषा और साहित्य]
मध्यकालीन भारतीय आय भाषाएं
खला इसकी परिचायक है। आर्यों के भारत में आगमन, प्रसार आदि के सन्दर्भ में विभिन्न प्रसंगों में अपेक्षित चर्चा की गयी है। उसके प्रकाश में कुछ चिन्तन अपेक्षित है।
भारत में आने वाले आयं पश्चिम में टिके, मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर सम्भवतः मगध तक उनका पहुंचना नहीं हुआ होगा । हुआ होगा तो बहुत कम । ऐसा प्रतीत होता है कि कौशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े । मगध आदि भारत के पूर्षीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक संस्कृति के चिह्न नहीं प्राप्त होते । ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में बहुत बाद में पहुंची, भगवान महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियों पूर्व ।
वेदमूलक आर्य-संस्कृति के पहुंचने के पूर्व मगध आर्यों की दृष्टि में निन्ध था। निरुक्तकार यास्क ने मगध को अनार्यों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकट शब्द माया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है । ब्राह्मण-काल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का - सा व्यवहार रहा था । शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिसमें निम्नता या घृणा का भाव था।
पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आयं जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओय. विशेषतः पूर्व की ओर बस गये, तो उनका भगाने वाले ( बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए ) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहुत सम्भाव्य है । उनका वहां के मूल निवासियों से मेलजोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेलजोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, इस प्रकार एक मिश्रित नृवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो । वैदिक वाङमय में प्राप्त वात्य शब्द सम्भवतः इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का द्योतक है, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे। व्रात्य शब्द की विद्वानो ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह हैं कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर प्रतधारी यायावर सन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, प्रात्य कहे जाते थे। व्रात्यों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक म्यवस्था है। यदि वे शुद्ध होना चाहते, तो उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप शुद्ध यथं यज्ञ करना पड़ता। बात्य-स्तोम में उसका वर्णन है। उस यज्ञ के करने के अनन्तर वे बहिभूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिये जाते थे। भगवान् महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियां पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे माय, वो
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