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१५४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहुंच गये हों। व्रात्य-स्तोम के अनुसार प्रायश्चित के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम, बहिष्कृत आर्यों का वर्ण-व्यवस्था में पुनः ग्रहण इत्यादि तश्य इसके परिचायक हैं।
पूर्व के लोगों को पश्चिम के आर्यों ने अपनी परम्परा से बहिर्भूत मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिर्भूत नहीं माना। ब्राह्मण-साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में व्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि वे अदुरुक्त को भी दुरुक्त 1 कहते हैं अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं । व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषा-प्रियता का परिचायक है। संस्कृत की तुलना में प्राकृत में बेसी सरलता है हो । इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है कि यहां प्राकृत-भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं।
व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण, के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असुरों के पराभूत होने का जो उल्लेख किया गया है; वहां उन्होंने उन पर है अरय: के स्थान पर हैलयः प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में रा के स्थान पर ल की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में बहुत पहले हो चुका था । उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हुआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है । उसका काल ई० पू० चौथी शतो है। यह स्थान पूर्वी प्रदेश के अन्तर्गत पाता है। इसमें र के स्थान पर ल का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
___ ऐसा भो अनुमान है कि पश्चिम के आर्यो द्वारा मगध आदि पूर्वीय भूभागों में याज्ञिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयाण किया गया होगा। उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही, एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर, जन-साधारण तक सम्भवतः वह सफलता व्याप्त न हो सकी। . . भगवान् महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्मकाण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्म-गत उच्चता आदि के प्रतिकूल एक व्यापक आन्दोलन का समय था। जन-साधा१. अदुरुक्तवाक्यं दुरुक्तमाहुः ! -ताण्ठ्य महाब्राह्मण, पंचविंश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हैलय इति कुवन्तः पराबभूवुः । तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वे नापभाषित
६. व। म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः। -महाभाष्य, प्रथम माह निक, पृ० ६ Jain Education International 2010_05
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