________________ जैन आगम ग्रन्थ भी एक विशाल वाङमय हैं और त्रिपिटक के अन्तर्गत जिन पालि-प्रन्यों की गिनती की जाती है, वे भी लगभग तीन महाभारतों के बराबर हैं। इस सारे वाङमय को मथकर उसका एक प्रकार से नवनीत निकाल कर रख देना सहज कार्य नहीं था। 'आगम और विपिटक' इस बात का प्रमाण है कि सतत् किये गये परिश्रम से दुष्कर कार्य भी सहज रूप से सिद्ध हो जाते हैं। -भदन्त आनन्द कौसल्यायन जैन और बौद्ध धर्म के साहित्य का आधुनिक युग में जो अध्ययन हुआ है, उसके आरम्भ काल से ही विद्वान् जनों के आगम-साहित्य और बौद्धों के 'स्थविरवाद' कहे जाने वाली पालित्रिपिटकों के ग्रन्थों में पायी जाने वाली आश्चर्यजनक समानताओं की ओर लक्ष्य करते रहे हैं।। प्रसन्नता की बात है कि पूज्य मुनिश्री नगराजजी डी० लिट् ने इस आवश्यकता को पूति की है। 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ के रूप में उन्होंने प्रथम पालि-त्रिपिटका और आगम-साहित्य का एक सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया है। -डा. भरतसिंह उपाध्याय डा० मुनिश्री नगराजजी से हमारी अपेक्षा यह है कि वे अपना सामर्थ्य इस ओर लगायें। कि आगमों में कौन-कौन से एन्थ का क्या-क्या काल हो सकता है ? यह उनके सामर्थ्य की। बात है। क्योंकि वे आगम और त्रिपिटक के निष्णातक रूप में हमारे आदर के पात्र हैं। -दलसुखभाई मालवरिणया मूर्धन्य मनीषी मुनिश्री नगराजजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने अपनी विशिष्ट कृतियों से भारतीय वाङमय को समृद्धि किया है। उनकी प्रस्तुत कृति 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' भाषा-शास्त्र के सन्दर्भ में मील का पत्थर है। -कन्हैयालाल सेठिया The work is full of deep scholarship, penetrating criticism and orginalities. It essays tackling problems which have not received due attention so far, and in my opinion, constitutes a most welcome contribution to the world of Scholarship. --Prof. Dr. G. C. Pande ____ Jain Education Intemational 2010_05/ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org