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११८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २ रुका नहीं। विस्तृत विषय-वस्तु का सूक्ष्मता से परिशीलन करने पर यह भी विदित होता है कि श्रमण-संस्कृति के अहिंसा, निर्वेद, धराग्य, तितिक्षा और अध्यात्म जैसे तत्त्व भी इसमें मिश्रित हो गये। संस्कृत-धाङमय में महाभारत का जो महत्व है, वह सदा अक्षुण्ण रहेमा । भाषा-तत्त्व, दर्शन तथा संस्कृति के तुलनात्मक एवं गवेषणात्मक परिशीलन को दृष्टि से उसमें पर्याप्त सामग्री भरी है।
रामायण और महाभारत के आधार पर तथा स्वतन्त्र रूप में आगे संस्कृत में जो विशाल साहित्य निर्मित हुआ, विश्व के वाङमय में उसकी अनेक दृष्टियों से अप्रतिम विशेषताएं हैं । रामायण महाभारत काल से मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल तक संस्कृत में विभिन्न विषयों पर उच्च कोटि के साहित्य-ग्रंथ रचे जाते रहने का एक अविश्रान्त स्रोत रहा है। एक सीमा तक, वर्तमान काल पर्यन्त उसकी गति अकुण्ठित अस्तित्व लिये हुए है।
स्था संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ?
संस्कृत का जन-साधारण के दैनन्दिन व्यवहार में प्रचलन था या नहीं, इस सम्बन्ध में विद्वानों के दो प्रकार के अभिमत हैं। पाश्चात्य विद्वानों में हॉर्नली, जाज ग्रियर्सन तथा वेबर आदि की मान्यता है कि संस्कृत का जन-साधारण द्वारा अपने पारस्परिक व्यवहार या बोलचाल में प्रयोग नहीं होता था। इसके विपरीत डा० सर रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर तथा डा० पी० डी० गुणे आदि ने यह स्वीकार किया है कि संस्कृत कभी बोलचाल की भाषा थी। उन्होंने ऐसा न मानने वाले पाश्चात्य विद्वानों के मत का खण्डन किया है। उनके अनुसार दूर से आह्वान, अभिवादन, परिचय, वार्तालाप आदि से सम्बद्ध कतिपय ऐसे नियम व्याकरण में प्राप्त हैं, जो किसी बोलचाल की भाषा पर ही लागू हो सकते हैं। साहित्य में प्रयुक्त भाषा और बोलचाल में प्रयुक्त भाषा का किंचित् भेद वे अवश्य स्वीकार करते हैं; क्योंकि साहित्यिक भाषा मर्यादानुगत तथा नियमानुबद्ध अधिक होती है और उसी का बोलचाल का रूप अपेक्षाकृत कम नियन्त्रित और कम मर्यादित होता है। फिर भी उनमें परस्पर उतनी भिन्नता नहीं होती कि उन्हें दो कह सके।
संस्कृत का जो रूप पाणिनि ने प्रतिष्ठित किया, ठीक उसी रूप में संस्कृत सर्वसाधारण में भाषितं थी, ऐसा तो सम्भव नहीं लगता। उससे सम्बद्ध, सन्निकटस्थ या मिलते-जुलते प्रचलित भाषा के रूप को बोलचाल की संस्कृत मान लिया जाये, तब भले ही ऐसा हो । पर, ऐसा माना नहीं जा सकता। क्योंकि व्याकरण के नियमों से अप्रतिबद्ध और एक सीमा तक स्वच्छन्द भाषा को संस्कृत नहीं कहा जा सकता । ऐसा होने पर उसका संस्कृतत्व या संस्कारवत्ता स्थिर नहीं रह पाती। वास्तव में भाषा का साहित्य-प्रयुक्त रूप ही ऐसा हो सकता है, जो नियमों के नियन्त्रण में रह सके। बोलचाल के रूप में ऐसा रहने की
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