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________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आय भाषाए [ ११७ हुमा अथवा जहां जिज्ञासाए की गई, अपने विचार तथा भाव भी व्यक्त किये । इस प्रकार महाभारत का एक तीसरा संस्करण तैयार हो गया, जिसमें हरिवंश भी संयुक्त है। प्रारम्भ में भी सौति ने कुछ नया अंश जोड़ दिया। वह महाभारत की एक प्रकार से प्रस्तावना, प्राक्कथन या विषयानुक्रम कहा जा सकता है। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ का कलेवर एक लाख श्लोकों का हो गया। ग्रन्थ के भाग-विभाजन को भी सौति ने एक नया क्रम दिया। महाभारत मूलतः एक सौ पर्यों में विभक्त था। सौति ने विषयों का सूक्ष्मता से परिशीलन करते हुए इसे अठारह बड़े पर्यों में विभक्त किया। पर्वो को अध्यायों में बांटा। इस प्रकार महाभारत का अति विशाल और भारी कलेवर तैयार हो गया। महत्वाद् भारवत्वाच्च महाभारतमुच्यते यह उक्ति सम्भवत: इस संस्करण की प्रस्तुति होने पर अस्तित्व में आई हो। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि महाभारत को इतना विशाल आकार क्यों दिया गया, जिससे मूल ही पहचान से बाहर हो जाए । मूल का अज्ञात हो जाना लाभ-प्रद नहीं कहा जा सकता। उससे भाषा की एकरूपता भी मिट जाती है । पर, यह सब हुआ। इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। सम्भवतः एक विचार यह रहा होगा कि महाभारत ज्ञानविज्ञान, आचार-शास्त्र तथा नीति-शास्त्र का एक प्रकार का विश्वकोश बन जाए; इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसमें उन सभी विषयों का समावेश किया जाता रहा होगा, जिनसे उक्त लक्ष्य की पूर्ति हो । तभी तो यदिहास्ति तत् सर्वत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् की उक्ति फलित हो सकती थी। एक और कारण भी रहा हो, समय पाकर मूल महाभारत का कुछ अंश नष्ट हो गया हो। उसे पूरा करने के लिए विद्वानों ने अनेक श्लोक, अध्याय आदि जोड़ दिये होंगे। कितना नष्ट हुआ, कितने से उसकी पूर्ति हो, इत्यादि वहां गोण हो गया हो, यह स्वाभाविक था। उस क्रम में अपेक्षित, अनपेक्षित बहुत सारे अश जुड़ गये हों। इसका अच्छा परिणाम तो यह हुआ कि महाभारत को नीति-शास्त्र, कर्तव्य-शास्त्र, आचार-शास्त्र, तत्त्व-ज्ञान, दर्शन, धर्म इत्यादि सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान का विशाल विश्व-कोश बना डालने की योजना की बहुत सीमा तक पूर्ति हुई। पर, भाषा-तत्त्व की दृष्टि से एक अपूरणीय क्षति भी हुई । महाभारत की मूल भाषा इतने विशाल कलेवर में इस प्रकार समा गयी है कि उसे बहुत स्पष्ट रूप में संचीर्ण कर पाना वास्तव में कठिन हो गया है। महाभारत के परिवद्धन में उल्लिखित घटनाओं के अनुसार तीनों संस्करणों के तैयार होने में बीच का व्यवधान बहुत लम्बा नहीं रहा; अत: भाषात्मक स्तर आदि में बहुत बड़ा भेद नहीं सोचा जाना चाहिए, पर, इसके साथ-ही-साथ परिषद्ध'न से सम्बद्ध जो घटनाक्रम व्याख्यात हुए हैं, वहीं तक यह क्रम समाप्त हो जाता, तब तक तो यह समुचित था, पर, ऐसा अनुमान है कि आगे भी वह क्रम चलता रहा, जिससे नवीन सामग्री का मिलना Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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