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________________ ***i Hit और faves : एक अनुशीलन छेद- ४ - १. निशीथ, २. व्यवहार, ३ वृहत्कल्प, ४. दशाश्रु तस्कन्ध मूल - ४ --- १. दशर्वकालिक, २. उत्तराध्ययन, ३, अनुयोगद्वार, ४. नन्दी आवश्यक - १ | कुल ३२ श्रागमों पर व्याख्या - साहित्य प्रथोजन श्रार्य भाषा-परिवार के अन्तर्गत छन्दस् के विश्लेषण तथा जैन उपांग- साहित्य के विवेचन के सन्दर्भ में वेदों के अंग, उपांग आदि की चर्चा की गयी है । वेदों को यथावत् रूप में समझने के लिए उनके छः अंग, उपांग या विद्या-स्थान पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्म - शास्त्र का प्रयोजन है । साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उनसे उद्भुत सूत्र ग्रन्थों एवं सायण आदि प्राचार्यों द्वारा रचित भाष्यों की भी उपयोगिता है । इस वाड्मय का भलीभांति अध्ययन किये बिना यह शक्य नहीं है कि वेदों का हार्द सही रूप में प्रात्मसात किया जा सके । वेदों के साथ जो स्थिति उपर्युक्त अंगोपांग एवं भाष्य - साहित्य की है, वही पालिपिटकों के साथ प्राचार्यं बुद्धघोष, आचायं बुद्धदत्त तथा आचार्य धम्मपाल श्रादि द्वारा रचित अट्ठकथाओं की है । पिटक - साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए इन अट्ठकथानों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । २ प्राकृत जैन श्रागमों के साथ उनके व्याख्या - साहित्य की भी इसी प्रकार की स्थिति 'है। उसकी सहायता या आधार के बिना श्रागमों का हार्द यथावत् रूप में गृहीत किया जाना कठिन है। जैन आगमों की अपनी विशेष पारिभाषिक शैली है, अनेक आगमों में प्रत्यन्त सूक्ष्म तथा गम्भीर विषयों का निरूपण है; अतः यह कम सम्भव है कि उन्हें सीधा सम्यक्तया समझा जा सके। इनके अतिरिक्त आगमों की दुरूहता बढ़ जाने का एक और कारण है । उनमें वाचना-भेद से स्थान-स्थान पर पाठ-भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । तद्विषयक परम्पराएं ग्राम प्राप्त नहीं हैं; प्रतः आगम-गत विषयों की समुचित संगति बिठाते हुए १. सूत्र - प्रन्थ रथूल रूप में चार भागों में विभक्त है : १. श्रौतसूत्र, २. गृह्यसूत्र, ३. धर्मसूत्र तथा ४. शुल्व सूत्र । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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