SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा और साहित्य | आर्य (अब मागधी) प्राकृत और आगम बाइ मय [४६७ उनका अभिप्राय यथावत् पकड़ पाना सरल नहीं है । व्याख्याकारों ने इस सन्दर्भ में स्थानस्थान पर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है, जिससे आगम-अध्येताओं को उनके अध्ययन, अनुशीलन और उनका अभिप्राय स्वायत्त करने में सुविधा हो। व्याख्यानों की विधा . जैन प्राचार्यों का इस ओर सतत प्रयत्न रहा कि आगम-गत तत्व पाठकों द्वारा सही रूप में आत्मसात् किया जाता रहे। यही कारण है कि आगमों के व्याख्या-परक साहित्य के सर्जन में वे सदा कृत-प्रयत्न रहे । फलतः नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका, वृत्ति, दीपिका, व्याख्या, विवेचन, विवरण, अवचूरि, पंजिका, वचनिका तथा टब्बा आदि विविध प्रकार का विपुल व्याख्या-साहित्य प्राप्त है। बहुत-सा प्रकाश में आया है तथा अन्य बहुत-सा प्रकाशन की प्रतीक्षा में भण्डारों में, मंजूषाओं तथा पुट्ठों में, आज भी प्रतिबद्ध है। व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियों तथा भाष्यों की रचना प्राकृत भाषा में हुई। चूरिया यद्यपि प्राकृत-संस्कृत का मिश्रित रूप लिये हुए हैं, पर, वहां मुख्यतया प्राकृत का प्रयोग है। कुछ टीकाएं भी प्रकृत-निबद्ध या प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित हैं । अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं । इस प्रकार आगमों के अतिरिक्त उनसे सम्बद्ध प्राकृत-साहित्य की ये चार विधाएं पौर हैं । आगमों सहित उसके पांच प्रकार होते हैं, जिसे पंचांगी साहित्य कहा जाता है। प्राकृत के विकास के विभिन्न स्तरों, रूपों आदि का अवबोध, भाषाशास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का सूक्ष्म परिशीलन, आगमगत जैन दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र के विविध पक्षों के प्रामाणिक तथा शोधपूर्ण अध्ययन आदि अनेक दृष्टियों से इस पंचांगी साहित्य के व्यापक पौर गम्भीर परिशीलन की वास्तव में बहुत उपयोगिता है। निज्जुत्ति (नियुक्ति) व्याख्याकार प्राचार्यों व विद्वानों के अनुसार सूत्रों में जो नियुक्त हैं, निश्चित किया हुआ है, वह अर्थ जिसमें निबद्ध हो—समीचीनतया सन्निवेशित हो-यथावत् रूप में निर्दिष्ट हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है । नियुक्तिकार इस निश्चय को लेकर चलते हैं कि वे सूत्रों का सही तथ्य यथावत् रूप में प्रस्तुत करें, जिससे पाठक सूत्रगत विषय सही रूप में हृद्गत कर सकें । पर, जिस संक्षिप्त और संकेतमय शैली में नियुक्तियां लिखी गयी हैं, उससे यह कम सम्भव लगता है कि उन्हें भी बिना व्याख्या के सहजतया समझा जा सके । यद्यपि निवेच्य विषयों को समझाने के हेतु अनेक उदाहरणों, दृष्टान्तों तथा कथानकों का उनमें Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy