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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४३९ २एक अहापोह : एक कल्पना ___हो सकता है, कभी प्राचीन काल में कहीं किसी ग्रन्थ-भण्डार में सूर्यप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां पड़ी हों। उनमें से एक प्रति ऊपर के पृष्ठ व उस पर लिखित सूर्यप्रज्ञति नाम सहित रही हो तथा दूसरी का ऊपर का पत्र-नाम का पत्र नहीं रहा हो, नष्ट हो गया हो, खो गया हो। नामवाली प्रति में भी प्रारम्भ का पत्र, जिसमें मांगलिक व विषयसूचक गाथाओं का उल्लेख था, खोया हुआ हो। अर्थात् अब दोनों प्रतियों का स्वरूप इस प्रकार समझा जाना चाहिए-उन दोनों प्रतियों में एक प्रति ऐसी थो, जिसका ऊपर का पृष्ठ था, उस पर ग्रंथ का नाम था। पर, उसमें गाथाएं नहीं थी। प्रथ का विषय सीधा प्रारम्भ होता था। गाथानों का पत्र लूप्त था। दूसरी प्रति इस प्रकार की थी, जिसमें ऊपर का पृष्ठ, नथ का नाम नहीं था। ग्रन्थ का प्रारम्भ गाथाओं से होता था। दोनों में केवल भेद इतना-सा था, एक गाथाओं से युक्त थी, दूसरी में गाथाएं नहीं थीं, पर, पायाततः देखने पर दोनों का प्रारम्भ भिन्न लगता था, इससे इस विषय को नहीं समझने वाले व्यक्ति के लिए असमंजसता हो सकती थी। किसी व्यक्ति ने भण्डार में ग्रन्थों को व्यवस्थित करने हेतु या सूची बनाने के हेतु ग्रन्थों की छान-बीन की हो। जैन अंगों, उपांगों आदि के पर्यवेक्षण के संदर्भ में ये दोनों प्रतियां उसके सामने आई हों। नाम सहित प्रति के सम्बंध में तो उसे कोई कठिनाई नहीं हुई; क्योंकि वह नाम भी स्पष्ट था और ग्रन्थारम्भ भी। ऊपर के पत्र से रहित, बिना नाम की प्रति के सम्बन्ध में उसे कुछ सन्देह हुमा हो, उसने ऊहापोह किया हो। सम्भवतः वह व्यक्ति विद्वान् न रहा हो। भण्डार की व्यवस्था या देखरेख करने वाला मात्र हो या ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने वाला साधारण पठित व्यक्ति रहा हो।
ऐसा सम्भाव्य है कि प्रथम प्रति को जिसमें ग्रन्थ-नाम था, गाथाएं नहीं थीं, प्रकरण प्रारम्भ से चालू होता था, उसने यथावत् रहने दिया। दूसरी प्रति, जिस पर नाम नहीं था, गाथाओं के कारण जो भिन्न ग्रन्थ प्रतीत होता था, के लिए उसने कल्पना की हो कि वह स्यात् चन्द्रप्रज्ञप्ति हो और अपनी कल्पानुसार वैसा नाम लगा दिया हो। वह ग्रन्थ को भीतर से देखता, गवेषणा कराता, पाठ मिलाता, यह सब तो तब होता, जब वह एक अनुसन्धित्सु विद्वान् होता।
सम्भवतः चन्द्रप्रज्ञप्ति का यथार्थ रूप तब तक नष्ट हो गया होगा ; अतः अन्यत्र कहीं उसकी सही प्रति मिल नहीं सकी हो और उसी प्रति के आधार पर, जिस पर नाम लगाया गया था, एक ही पाठ के ग्रन्थ दो नामों से चल पड़े हों, चलते रहे हों। शताब्दियां बीतती गयीं और एक ही पाठ के दो ग्रन्थ पृथक-पृथक् माने जाते रहे ।
धर्म श्रद्धा भी देता है और विवेक भी। विवेक-शून्य श्रद्धा अचक्षुष्मती कही जाती है।
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