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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २
रहस्थामा : एक समाधान
____ अतिपरम्परावादी धार्मिक, जिन्हें स्वीकृत मान्यता की परिधि से बाहर निकल कर जरा भी सोचने का अवकाश नहीं है, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति के परिपूर्ण पाठ-साम्य को देखते हुए भी आज भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि ये दो ग्रन्थ नहीं हैं। उनका विचार है कि सूर्य, चन्द्र, कतिपय नक्षत्र आदि की गति, क्रम प्रादि से सम्बद्ध कई ऐसे विषय हैं, जो प्रवृत्तित. एक समान हैं; अतः उनमें तो भेद की कोई बात ही नहीं है । एक जैसे दोनों वर्गन दोनों स्थानों पर लागू होते हैं। अनेक विषय ऐसे हैं, जो दोनों में भिन्नभिन्न हैं, यद्यपि उनकी शब्दावली एक है । एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । सामान्यतः प्रचलित अर्थ को ही लोग अधिकांशत: जानते हैं। अप्रचलित अर्थ प्रायः अज्ञात रहता है। बहुत कम व्यक्ति उसे समझते हैं। यहां कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है ।
वास्तव में दोनों ग्रन्थों में प्रयुक्त एक जैसे शब्द भिन्नार्थक हैं। ऐसा किये जाने के पिछे भी एक चिन्तन रहा होगा। बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनका उद्घाटन सही अधिकारी या उपयुक्त पात्र के समक्ष ही किया जाता है, अनधिकारी या अपात्र के समक्ष नहीं; अत: उन्हें रहस्यमय या गुप्त बनाये रखना आवश्यक होता है । अधिकारी को उन्हीं शब्दों द्वारा वह ज्ञान दे दिया जाता है, जिनका अर्थ सामान्यः व्यक्त नहीं है । ऐसी ही कुछ स्थिति यहाँ रही हो, तो प्राश्चर्य नहीं। कभी परम्परया इन रहरयों को जानने वाले विद्वान् रहे होंगे, जो, अधिकारी पात्रों के समक्ष उन रहस्यों को प्रकाशित करते रहे हों। पर वह परम्परा सम्भवतः मिट गयी। रहस्य रहस्य ही रह गये। यही कारण है, इन दोनों उपांगों के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में एदंयुगीन ज्ञान के अल्पत्व के कारण ऐसा है। तथ्य यही है, दोनों उपांग, जो वर्तमान में उपलब्ध हैं, यथावत् हैं अपरिवर्तित हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न ही माना जाना चाहिए । ____ कहने को स्वीकृत परम्परा के संरक्षण के हेतु जो कुछ कहा जा सकता है, पर विवेक के साथ उसकी यथार्थता का अंकन करने का प्रबुद्ध मानव को अधिकार है। इसलिए यह कहना परम्परा का खण्डन नहीं माना जाना चाहिए कि रहस्यमयता और शब्दों की अनेकार्थकता का सहारा पर्याप्त नहीं है, जो इन दोनों उपांगों के अनक्य या असादृश्य को सिद्ध कर सके । इस पर प्रधिक युक्तियां उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं है। विज्ञजन उन्मुक्त भाव से चिन्तन करेगे, तो ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है कि उनमें से अधिकांश को किसी रहस्यमयता तथा शब्दों के बह वर्थकता-मूलक समाधान से तुष्टि नहीं होगी। यह मानने में कोई अन्यथाभाव नहीं प्रतीत होना चाहिये कि वर्तमान में उपलब्ध ये दोनों ग्रन्थ स्वरूपतः-शाब्दिक दृष्ट्या एक हैं और तात्पर्यंतः भी दो नहीं प्रतीत होते ।
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