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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन आगन
[ खण्ड : २ पर, धर्म के क्षेत्र में वैसा भी होता है, जो पालोच्य है, प्रादेय नहीं । प्रति श्रद्धा-पूर्ण मानस के बाहुल्य के कारण प्रागम-वेत्तानों में इस तथ्य को जानते हुए भी व्यक्त करने का उत्साह क्यों होता ? जब लोगों के समक्ष यह स्थिति आई, तो अपनी मान्यता और परम्परा के परिरक्षण के निमित्त ऐसे तर्को का, जिस और इंगित किया गया है, जिन्हें तर्क नहीं, तर्काभास कहा जा सकता है, सहारा लिया जाने लगा।
वर्तमान में दो कहे जाने वाले उपांगों का जो कलेवर है, उसे देखते हुए यह मानने में धर्म की जरा भी विराधना या सम्यक्त्व का हनन नहीं लगता कि एक ही पाठ को दो ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करने की बात कुछ और गवेषणा, चिन्तन तथा परिशीलन की मांग करती है, ताकि यथार्थ की उपलब्धि हो सके।
থা-ঋণ ঐ মিশন
उपांगों के संख्या-क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति की स्थानापन्नता में कुछ भेद ।
अमोलक ऋषि ने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
को सातवां उपांग माना है। विण
प्रज्ञप्ति की गणना सूर्यप्रज्ञप्ति से पह संक्रान्ति-काल की प्राकृतें
के चन्द्रप्रज्ञप्ति का प्राज जो रूप है। मैंने संख्या
बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा prakritas of Transional Period) क पता चलता है, a to o (Prakritas of Transional Period) सूर्यप्रज्ञप्ति अपने यथावत् रूप न पचनाग ह । 47 नान गुरु उसमें सूर्य-सम्बन्धी वर्णन अपेक्षाकृत अधिक है। चन्द्र का भी वर्णन है, पर, विस्तार और विविधता में उससे कम । चन्द्रप्रज्ञप्ति का वर्तमान संस्करण स्पष्ट ही मौलिकता की दृष्टि से पालोच्य है। अतः उसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् लिया गया है। प्राचार्य मलयगिरि को इस पर टीका है।
पांच निरयाव लिया निरयावलिया ( निरयावलिका ) में पांच उपांगों का समावेश है, जो इस प्रकार हैं :
१. निरयावलिया या कप्पिया ( कल्पिका ) २. कप्पवडंसिया ( कल्पावतंसिका ) ३. पुप्फिया ( पुष्पिका ) ४. पुष्फचूलिया ( पुष्पचूलिका ). ५. वहि नदक्षा ( वृष्टि-दशा ) ।
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