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________________ ५५vj मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [पण्ड । २ कल्प पर जोर न दिया जाये, दोनों को प्रस्तुत किया जाये । जिस साधक को जैसा उत्साह हो स्वीकार करे । तत्पश्चात् महावीर के श्रमण-संघ में दोनों कल्पों का विकास हुआ हो। পথ খু নগ্ধ বানী বংশহণ यह सही है कि निर्वस्त्र-श्रमण-जीवन अपेक्षाकृत अधिक कष्टपूर्ण है। दैहिक कष्टों, प्रतिकूलतामों और उत्तापों को समभाव के सहना निःसन्देह बड़े साहस का काम है। पर, एक बात उसके साथ है, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। समाज को कुछ लौकिक मर्यादाएं एवं व्यवस्थाएं होती हैं । उनके अनुसार एक नग्न श्रमण को धर्म-प्रसार के पुनीत उद्देश्य से भी समाज के सब अंगों के साथ घुलने-मिलने, सम्पर्क साधने प्रादि में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां होती हैं। अपने अनुयायिओं की दृष्टि से तो यह बात नहीं हैं; क्योंकि वे उनके प्रति असीम श्रद्धा लिए रहते हैं । अतः उनकी दृष्टि में उनका नाग्न्य नहीं, त्याग रहता है। पर, जहां अनुयायी नहीं हैं, वहां कठिनाइयां अवश्य उत्पन्न होती हैं। इसे संक्षेप में यों समझा जा सकता है कि जिन कल्पारूढ़ या निर्वस्त्र-श्रमण का कार्य-क्षेत्र अधिकांशतः प्रात्म-साधना होता है । जिनकल्पी साधक का जीवन-चर्या से सम्बद्ध विधिविधानों से भी यह तथ्य सिद्ध होता है। जन-समुदाय में धर्मोद्योत तथा अध्यात्म-जागरण का कार्य करने की सवस्त्र श्रमण को अधिक सुविधा एवं अनुकूलता रहती है । क्योंकि समाज के साथ घुलने-मिलने में उन्हें कठिनाई नहीं होती; प्रतः स्यात् व्यवहार ऐसा हो, अनवरत अध्यात्म-साधना, ध्यान आदि में रुचि रखने वाले श्रमण यदि चाहते तो जिनकल्प अपनाते । समाज से उनका विशेष सम्पर्क नहीं रहता। वे ज्ञानोपासना एवं तपश्चर्या प्रादि में लीन रहते । जन-समुदाय में धर्म-जागृति उत्पन्न करने का दायित्व उन श्रमणों पर प्राता, जो सवस्त्र थे। वे श्रमण-जीवन के मौलिक एवं अनिवार्य नियमों का पालन करते, ज्ञानाराधना तथा ध्यान आदि में भी यथासम्भव समय देते और साथ-ही-साथ वे लोगों में धर्म के आदर्शों का प्रसार करते, धर्म-प्रभावना करते। यह भी बड़ा आवश्यक कार्य था। यों एक संघ के दो वर्गों पर दो प्रकार के दायित्व थे, जिनका के निष्ठा एवं तन्मयतापूर्वक भलीभांति निर्वाह करते जाते । एक वर्ग जहां आत्म-परिष्कार की दृष्टि से असाधारण था, दूसरा आत्म-साधना के साथ-साथ जन-जन में धर्म की ज्योति जगाने की दृष्टि से अपनी विशेषता लिए हुए था। अतएव कौन अधिक कष्ट सहता है, कौन सुविधाएं भोगता है-इत्यादि बातें गौण थीं । समाज में दोनों का प्रतिष्ठापन्न स्थान था। भगवान Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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