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माषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [५५५ महावीर से प्रार्य जम्बू तक यह क्रम सुन्दर रूप में चलता रहा, पर, जम्बू के पश्चात् उसमें अन्तर आया।
अन्तर : एक सम्भावना
जब तक जीवन में पूर्णता नहीं आती, तब तक विकास या ऊध्र्वगमन की सम्भावनामों के साथ-साथ ह्रास या अधोगमन की कुछ दुराशंकाएं भी बनी रहती हैं, क्योंकि जब तक साधक एषणा-विजय नहीं कर पाता, तब तक जब कभी उसमें अहं का उभार होने की स्थिति रहती ही हैं। . ऐसा संभाव्य प्रतीत होता है, आर्य जम्बू के अनन्तर संघ के श्रमणों में कुछ खींचातान हुई हो। उस वर्ग के, जो निर्वस्त्र था, जिसका जीवन उग्र तपोमूलक था, जो दुःसह परिषह सहता था, मन में कुछ ऐसा आया हो कि समाज में निर्वस्त्र और श्रमणों का दर्जा समान क्यों ? इस (निर्वस्त्र-श्रमण-वर्ग) का स्थान अपेक्षाकृत उच्च क्यों नहीं माना जाये, जो असाधारण दैहिक कष्ट तथा लज्जा जैसे परिषह का विजेता है।
क्रिया अपने अनुरूप प्रतिक्रिया लाती है। विरोध तथा अवहेलना मूलक क्रिया की प्रतिक्रिया तीव्र विरोध एवं तिरस्क्रिया में होती है। जिनकल्पियों की इस विचारण की प्रतिक्रिया स्थविरकल्पियों पर वैसी ही हुई होगी। उन्होंने सोचा होगा, ये नग्न मुनि यदि अपने उग्र तपोमय जीवन का दम्भ करते हैं, तो जन-जन में धर्म-प्रभावना एवं धर्मोद्योत की दृष्टि से उनके द्वारा किया जाने वाला कार्य, जो पार्हत्-संस्कृति के विकास तथा प्रसार का महान कार्य है, क्या कम महत्व रखता है ? ये क्या जानें, उसके लिए हमें कितना श्रम व प्रयास करना होता है। यदि ये नग्न मुनि दारुण प्रतिकूल परिषह सहते हैं, हम प्रतिकूल और अनुकूल-दोनों प्रकार के परिषह सहन करते हैं। समृद्ध तथा भोगमय जीवन के समीप रहते हुए भी उसमें सर्वथा निर्लिप्त ही नहीं, प्रत्युत् उसमें विरक्ति एवं त्याग का संचार करना किसी से कम महत्व का कार्य नहीं है।
सम्भवतः दोनों ओर इस कोटि का ऊहापोह चला होगा, जिसका परिणाम आगे चलकर उस गहरी खाई के रूप में पाया, जिसने जैन संघ को निर्वस्त्र और सवस्त्रदिगम्बर एवं श्वेताम्बर के रूप में बांट दिया।
आर्य जम्बू के बाद भेद का उभार दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों की प्रार्य जम्बू तक की परम्परा लगभग सदृश है।
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