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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय i (50 कहते हैं । कभी वहां का सिद्धान्त-मन्दिर बांसों के समूह में छिपा हुआ था । उन्हें छेद कर उसका पता लगाया गया । उस कारण वह गांव 'बिदुरे' कहा जाने लगा । कन्नड़ भाषा में मूड शब्द पूर्व दिशा का वाची है तथा पडु पश्चिम दिशा का । यहां मूल्की नामक पुराना गांव है । उसे पडुबिदुरे कहा जाता है । उसके पूर्व में अवस्थित होने के कारण वह गांव, जहां 'सिद्धान्त - वसवि' का पता चला, मूडबिदुरे कहा जाने लगा । उसी का रूपान्तर मूडबिद्री है। इस नामकरण में शाब्दिक दृष्टया बिदिर अर्थात् बांस शब्द का विशेष प्रभाव रहा है । इस आधार पर इसे वंशपुर या वेणुपुर के रूप में भी अभिहित किया गया है । व्रतपुर या व्रतिपुर नाम से भी प्रसिद्ध है, जिसका अभिप्राय यह है कि यह कभी व्रती साधुओं का निवास- केन्द्र रहा है । सिद्धान्त-वस'दि : एक दन्त-कथा उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कभी यह स्थान बांसों से प्राच्छन्न एक वन के रूप में अवस्थित था । कहा जाता है, लगभग एक सहस्राब्दी पूर्व की घटना है, एक जैन मुनि श्रवणबेलगोला से यहां आये । वे पडुवसदि नामक मन्दिर में टिके । मूडबिद्री में इस नाम का प्राचीन मन्दिर अब भी विद्यमान है । उसमें अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियां भी मिलीं, जिन्हें वहां जैन मठ में सन्निधापित कर दिया गया। वे मुनि एक दिन शौच के लिए बाहर गये तो उन्होंने उस स्थान पर, जहां आज गुरु-वसवि है, एक सिंह और एक गाय को प्रसन्न मुद्रा में साथ-साथ खेलते देखा । मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्हें उस स्थान में कुछ विशेषता या चमत्कार प्रतीत हुआ । उन्होंने उसकी छानबीन की। उन्हें बांसों के झुरमुट में छिपी हुई, पत्थर आदि से घिरी हुई काले पाषाण की नौ हाथ- परिमाण भगवान् पार्श्वनाथ की खड्गासनमयी मूर्ति दिखाई दी । जैनों को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीर्णोद्धार कराया । वहां मंदिर का निर्माण कराया । वही मन्दिर आज गुरु-वसदि के नाम से विश्रुत है । भगवान् पार्श्वनाथ की इस मूर्ति के पाद- पीठ पर इसके प्रतिष्ठित किये जाने के समय का उल्लेख है । उसके अनुसार इस मूर्ति की आदि-प्रतिष्ठा शक संवत् ६३६ तदनुसार ईसवी सन् ७१४ में हुई । इस मन्दिर के आगे के मण्डप – लक्ष्मी मण्डप का निर्माण चोल सेठी द्वारा कराया गया । निर्माण का समय १५३५ ईसवी है । कहा जाता है कि गुरु-वसदि के निर्माण में कुल छः करोड़ रुपये समय के छ: करोड़ रुपये आज कितने होंगे । खर्च का यह मूर्तियों के मूल्य के सहित हो, जो यहां सुरक्षित हैं । खर्च हुए । कल्पना करें, उस प्रांकड़ा सम्भवतः उन रत्म Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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