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________________ ६२८॥ आगम और बिपिटक : एक अनुशीलने .. भूडबिद्री : भट्टारक-पीठ होयसल वंश में विष्णुवर्धन नामक राजा हुआ। १११७ ईसवी में उसने जैन धर्म का परित्याग कर बैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया। एक तरफ तो ऐसा इतिहास है कि वैष्णव और शैव में आस्था रखने वाले राजाओं ने भी जैन धर्म की वह सेवा की, जो स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है तथा दूसरी ओर इतिहास का एक काला पृष्ठ यह भी है कि इस होयसल वंशीय राजा ने, जो जैन से वैष्णव हो गया था, जैन धर्म और संस्कृति का उच्छेद करने के लिए कमर कस ली । भावावेशवश धर्म-परिवर्तन करने वालों में प्रायः अभिनिवेश व्याप्त हो जाता है । वे अक्सर असहिष्णु और कट्टर हो जाते हैं। ____ हलेवीड-दोर समुद्र में तब जैन धर्म, संस्कृति और कला का बड़ा प्रभाव था। अनेक भव्य एवं विशाल जिन प्रासाद वहां निर्मित थे। इस असहिष्णु राजा ने वहां के जैन मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। जैन धर्म के अनुयायियों पर बड़े दुःसह अत्याचार किये । जैन प्रजा में बड़ी भीति और क्षोभ व्याप्त हो गया । किंवदन्ती के अनुसार उस राजा के अत्याचार से कुछ दैवी प्रकोप हुआ। भयानक भूकम्प हुआ। दोर समुद्र की भूमि फट गई । वहां एक बड़ा गर्त हो गया। विष्णुवर्धन के उत्तराधिकारी राजा वारसिंह तथा उसके पश्चाद्वर्ती राजा वल्लालदेव ने विष्णुवर्धन की इस भूल को अनुभव किया । उन्होंने देखा, उनका राज्य प्रशान्त एवं उपद्रव ग्रस्त होता जा रहा है । उन्होंने जैनों के क्षोभ तथा अन्तर्वेदना को शान्त करने के निमित्त अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। नये मन्दिरों का निर्माण कराया। मन्दिरों के लिए भूमि-दान दिया। वल्लालदेव ने एक कार्य और किया। उस समय श्रवणवेलगोला में भट्टारक चारुकीर्ति थे । कहा जाता है, वे मांत्रिकतान्त्रिक भी थे । वे पण्डिताचार्य के विरुद से अलंकृत थे। वीर वल्लालदेव ने उन्हें अपनी राजधानी में आमंत्रित किया। भट्टारक चारुकीति राजा की अभ्यर्थना पर दोर समुद्र आये। उन्होंने अपनी विद्या तथा मंत्राराधना द्वारा वहां के उपद्रवों को शान्त किया । राजा बहुत परितुष्ट हुआ। जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई । भट्टारक १. विलगी के शासन-लेख में इसका कन्नड़ में इस प्रकार उल्लेख है । . "कर्णाटक-सिद्धसिंहासनाधीश्वर-बल्लालरायं प्रापिसे श्रीचारकीतिपंडिताचार्य इंतु कीतियं पडेवर - तिबे रायननेंदु नेलंबाटिबडे तन्न मंत्रजपविधियिनवं ॥ कुंबलकापि सूलदु यशं बोदेसकरके पंडितार्यने नोंतं ॥" ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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