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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्ध मागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३७३ दिगम्बर-परम्परा में तस्कर प्रभव के स्थान पर तस्कर विद्युञ्चर का उल्लेख है । जम्बू को उत्तराधिकार-परम्पया में प्रभव का कोई उल्लेख नहीं है। दिगम्बर-मान्यता के अनुसार जम्बू के उत्तराधिकारी विष्णु या नन्दो थे। उनका आचार्य-काल चौदह वर्ष का था। तिलोयपण्णती में 'नन्दी' नाम का उल्लेख है। आर्य शय्यम्भव आर्य जम्बू के पश्चात् श्रोत-स्रोतस्विनी के संवाहक एवं सम्प्रसारक मार्य शय्यम्भव थे। वे अपने युग के उद्भट विद्वान थे। वे वेदज्ञ, याज्ञिक एवं कर्मकाण्ड-निष्णात थे। कहा जाता है, आर्य प्रभव को कुछ ऐसी अन्तः प्रेरणा हुई कि उन्होंने विद्वान् शय्यम्भव को प्रतिबोष देने के हेतु दो मुनियों को उनके पास भेजा। उस समय शय्यम्भव यज्ञ-निरत थे। वे मुनियों द्वारा उबुद्ध एवं उत्प्रेरित हुए । आर्य प्रभव के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। प्रगाढ़ विद्वान् तो थे ही, प्रतिभा और मेधा के द्वारा भ्रत को अनवरत उपासना की। चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान अजित किया। श्रुत केवली हुए । जिस समय शय्यम्भव दीक्षित हुए थे, उनकी धर्मपत्नी गर्भवती थी। यथासमय पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम मनक रखा गया । पुत्र सयाना हुमा । उसने जाना, उसके पिता श्रमण हैं। वह उनके पास आया। उनके तपःपूत जीवन से प्रभावित हुआ और दीक्षित हो गया। अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा आचार्य शय्यम्भव ने जाना, मनक का आयुष्य बहुत कम है। उसका जीवन केवल छः मास का है। उन्होंने उसके कल्याण के लिए संयम तथा साधना-मूलक श्रुतागमों में से सास-सार आकलित कर दशवकालिक की रचना की, जिससे वह नवदीक्षित श्रमण उसका परिशीलन करता हुआ अपने संयम-जोषितव्य का सफलतापूर्वक निर्वाह करता जाए । आचार्य शय्यम्भव की श्रुत-जगत को यह एक महत्वपूर्ण देन है। इनका स्कन्दिल के बाद और नागार्जन के पहले उल्लेख है और प्रस्तुत थेरावली में इनको स्कन्दिल का शिष्य लिखा है, पर, यह निश्चय होना कठिन है कि यह घेरावलो प्रस्तुत हिमवत्-कृत है या अन्य कृत । इसमें कई प्राचीन और अश्रुतपूर्व ऐसे उल्लेख हैं, जिनका प्राचीन शिलालेखों से भी समर्थन होता है । इन तथ्यों का प्रतिपादन इसमें देख कर यह अनुमान होता है कि स्यात् यह प्राचीन हो, पर, कतिपय उल्लेख ऐसे भी हैं, जो इस थेरावली को हिमवत् कर्तृ कता में शंका उत्पन्न करते हैं। अतएव अब तक यह अनिर्णित जैसा है कि वस्तुतः यह थेरावलो किसके द्वारा रचित है। १. गंदी य गंविमित्तों विदिओ अवराजिदो तइज्जो य । गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दबाहुत्ति ॥ -तिलोयपण्णत्ती, १४८२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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