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प्रकाशकीय
'आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन' खण्ड : १ कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ । यह सर्वविदित है ही कि वह साहित्यिक जगत् में अपनी दिशा का एक कीर्तिमान बना । नाना विश्वविद्यालयों ने उसे अपने-अपने पाठ्यक्रम में रखा तथा कानपुर विश्वविद्यालय ने मुख्यतः उसी ग्रन्थ के आधार पर लेखक मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० की मानद उपाधि से सम्मानित किया । परम प्रसन्नता की बात है कि उसी गौरवपूर्ण ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के प्रकाशन का दायित्व हमारे अर्हत् प्रकाशन संस्थान को मिला ।
स्वर्गीय उपाध्याय मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के अभिनिष्क्रमण-काल के अगले वर्ष सन् १९७६ से ही इस प्रकाशन संस्थान का 'अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समाज' के दायित्व में उदय हुआ । तब से अब तक लगभग २० पुस्तकें हम प्रकाशित कर चुके हैं । अब इस विशाल ग्रन्थ का प्रकाशन कर हमें हर्षानुभूति हो रही है ।
तथारूप विशाल ग्रन्थों के प्रकाशन में मुख्यतः दो तरह की कठिनाइयां हुआ करती हैं। एक प्रर्थं की और दूसरी प्रकाशन-शुद्धि की । हमें दोनों ही कठिनाइयों से नहीं गुजरना पड़ा है । राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्० जैन-जैनेतर सभी समाजों में श्रद्धास्पद हैं । एक हजार से पांच हजार तक की योजना बनाकर हम चले थे । जहां भी प्रस्ताव रखा, सफलता मिली व प्रस्तुत प्रयोजन से १० हजार तक के सहयोगी भी हमें मिले । आज मैं उन समस्त आर्थिक सहयोगियों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ । उनके सहयोग से ही वर्तमान महंगाई के युग में भी हम अपना लक्ष्य पूरा कर पा रहे हैं ।
संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी, अंग्रेजी आदि नाना भाषात्रों के सन्दर्भों से भरे-पूरे ग्रन्थ के प्रूफ-संशोधन का कार्य भी कठिनतर था, पर हमारे अभ्यस्त एवं अनुभवी कार्यकर्ता श्री मुहरसिंह जैन व श्री रामचन्द्र सारस्वत ने उस दुरूह कार्य को भी पूर्ण जागरूकता से सहज कर बताया ।
मुद्रण-व्यवस्था की दृष्टि से हरलालका आर्ट प्रिंटर्स प्रौर मेहता फाइन आर्ट प्रेस; इन दो प्रसों का सहारा हमें लेना पड़ा । कलकत्ता के विद्युत् संकट के कारण विलम्ब अवश्य हुआ, पर श्री शंकरलालजी हरलालका एवं माननीय श्री मदनकुमारजी मेहता का ग्रन्थ को यथोचित ढंग से प्रकाशित करने में उल्लेखनीय योगदान रहा । श्री मेहता जी
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