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________________ मामा और साहित्य सौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६२१ तत्त्वार्य-सूत्र जैसे जैन-जगत के सर्व समादृत ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य उमास्वामि (प्रथम शती ई०), प्राप्त मीमांसा जैसे अनेक प्रौढ़ ग्रन्थों के लेखक महान् प्रतिभाशाली विद्वान् व प्रभावक प्रवचनकार प्राचार्य समन्तभद्र (ई० सन् १२०-१८५), महाप्राज्ञ विद्वान्, लेखक, वैयाकरण, योगनिष्णात साधक एवं कवि तत्त्वार्थ सूत्र की बहुसमाप्त सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति तथा जैनेन्द्र व्याकरण आदि के निर्माता आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद तथा जैन न्याय के प्रमुख प्रतिष्ठापक, महान् मेघावी, तत्त्वार्थ-राजवातिक, अष्टशती, न्याय-विनिश्चय प्रभृति अत्यन्त प्रौढ़ कृतियों के सर्जक आचार्य प्रकलंक (सातवीं ई० शती) आदि के नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं । वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र प्रभृति और भी अनेक प्रकाण्ड विद्वान् तथा साहित्य-स्रष्टा इस पुण्य वसुधरा में उत्पन्न हुए, जिनका अपने-अपने स्थान पर असाधारण महत्व है। जैन धर्म का प्रभाव वस्तुतः जैन धर्म और उसके साहित्य ने दक्षिण को बहुत प्रभावित किया । जैन धर्म का अस्तित्व केवल एक ससीम सम्प्रदाय के रूप में ही नहीं था, समग्र लोक-जीवन पर उसकी छाप थी। दक्षिण में जैन धर्म और लोक-जीवन की परस्पर कितनी प्रोत-प्रोतता थी, प्रो० एस० के० रामचन्द्र राव के निम्नांकित कथन से स्पष्ट है : "दक्षिण के विकास-क्रम को जाने बिना जहां जैन इतिहास अपूर्ण रहेगा, ठीक उसी प्रकार दक्षिण में जैनों के कृतित्व को प्रांके बिना दक्षिण भारत का इतिहास भी अपूर्ण ही रहेगा।"1 अन्तःस्पर्शी विचार-दर्शन, उस द्वारा परिव्याप्त जीवन-वृत्त तथा प्रवाहित सांस्कृतिक धारा-ये वे कसौटियां हैं, जिन पर आंके जाने पर दक्षिण में जैनों का कृतित्व निःसन्देह खरा उतरता है। कर्नाटक में जैन धर्म का प्रभाव दक्षिण में भी विशेषतः कर्नाटक में जैन धर्म का जो प्रभाव रहा, वह निःसन्देह अप्रतिम था। 1. If the history of Jainism would altogether be incomplete without a consideration of the Southern' developments, the history of South India would equally be ilicomplete without treatiog of the past played by Jainism. -Jainism in south India, Prefatory Note, Page VII Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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