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________________ आगम और विपिटक : एक अनुशीलन ६२२] कदम्ब वंश ___ जैन धर्म की शालीनता, पवित्रता तथा सहिष्णुतामय वृत्ति-ये कुछ ऐसे कारण थे कि दक्षिण के कुछ ऐसे राजवंशों ने भी, जो यद्यपि ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी थे, जैन धर्म को बड़ा प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियां दक्षिण में कदम्ब वंश के अभ्युदय एवं प्रतिष्ठा का काल था । वह वंश ब्राह्मण-धर्मानुयायी था, पर, साथ-हीसाथ जैन धर्म का भी बड़ा परिपोषक रहा। चौथी शती ईसवी के समापन के आस-पास उस वंश का राजा काकुत्स्थ वर्मा था। वह जैन धर्म का प्रश्रयदाता था। मृगेश वर्मा के पुत्र भानुवर्मा और रविवर्मा थे । इन सभी ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। गंग वंश ___ईसा की चतुर्थ शती के उत्तराद्धं से दशम शती तक कर्नाटक के अधिकांश भाग पर गंग वंश का शासन था। वह वंश जैन धर्म का समर्थक एवं परिपोषक था। गंग राजवंश के संस्थापक राजा का नाम कोंगुणीवर्मा था। इसका स्थापना-काल ३५० ई० माना जाता है। इस वंश के अधिकांश राजा विष्णु के उपासक थे। पर, जैन धर्म के प्रति भी उनका मादर बढ़ता गया, ऐसा देखा जाता है। इस सम्बन्ध में एक जन-श्रुति है। इस राजवंश की स्थापना के समय सिंहनन्दी नामक जैनाचार्य थे। इसकी स्थापना में उनका योगदान था। फलतः इस राजवंश में जैन-धर्म के प्रति सहजतया निष्ठा एवं श्रद्धा का संचार हुआ। मैसूर के गजेटियर में उल्लेख है कि वह दक्षिण का प्रमुख जैन राजवंश था । नन्दगिरि (मन्दी हिल्स) उनका दुर्ग था, कुवालाल (आधुनिक कोलार) उनका नगर था, जिनेन्द्र उनके देव और जैन मत उनका धर्म था। इस वंश के संस्थापक का पौत्र हरिवर्मा था। उसके राज्य-काल में राजधानी तलकडु परिवर्तित कर ली गई। तब से वह वंश 'तलका के गंग' नाम से विश्रुत हो गया। ई० सन् ४७५ में गंग वंश के राज्यासन पर प्रविनीत नामक राजा प्रारूढ़ हुमा । वह उस वंश का प्रख्यात राजा था। जैन धर्म की अभिवृद्धि में उसने बड़ा रस लिया। उसके गुरु आचार्य विजयकीर्ति थे । अपने जीवन के पश्चावर्ती भाग में उस राजा ने पुनाड़ तथा अन्य स्थानों की जैन वसदियों के लिए जागीरें प्रदान की। राजा अविनीति यद्यपि स्वयं 1. Lewis Rice, Mysore Gazatteer, I, P. 388 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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