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________________ ६२०] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन मक प्रश्न : एक समाधान ___ दक्षिण में जैन धर्म के रूप में दिगम्बर-सम्प्रदाय ही प्रसृत हुआ, श्वेताम्बर नहीं । आज भी मूलतः दक्षिण निवासी जो जैन हैं, वे लगभग सब के सब दिगम्बर हैं, श्वेताम्बर नहीं हैं, वै प्रायः वहीं हैं, जो उत्तर के राजस्थान, गुजरात प्रादि प्रदेशों से व्यवसाय हेतु वहां जाकर बस गये हैं । के दल दिगम्बर ही दक्षिण में कैसे फैले-यह एक प्रश्न है । इस सन्दर्भ में एक सम्भावना की जा सकती है कि जैन धर्म में श्वेताम्बरों तथा दिगम्बर के रूप में जब भेद पड़ा, तब तक दक्षिण में जैन धर्म का उत्तर की अपेक्षा बहुत कम प्रसार रहा हो । दिगम्बर मुनियों में धर्मोद्योत एवं धर्म-प्रभावना का तीव्र उत्साह रहा हो, साथ-ही-साथ अपने लिए एक स्वतंत्र क्षेत्र प्रतिष्ठापन्न करने का भी मानस रहा हो । एतदर्थ दक्षिणापथ में धर्म को व्यापक रूप में प्रसृत करने का उनमें भाव जागा हो । दक्षिण का जन-मानस उन्हें अपेक्षाकृत विशेष उर्वर लगा हो । निर्बस्त्र जीवन-यापन की दृष्टि से वहां का जलवायु भी, जो उस प्रदेश की उष्ण कटिबन्ध में अवस्थिति के कारण प्रायः उष्ण है, अनुकूल प्रतीत हुअा हो । ऐसे और भी कारण हो सकते हैं, जिन्होंने दिगम्बर श्रमणों को दक्षिण की ओर आकृष्ट किया हो । धर्म-प्रसार का जैसा तीव्र उत्साह एवं तदनुरूप उद्यम उन दिगम्बर-श्रमणों में रहा, वह फलान्वित भी हुआ, जिसका ज्वलन्त प्रमाण दाक्षिणात्य भाषाओं का साहित्य, वहां का स्थापत्य, मूर्तिकला, संस्कृति आदि है। নত্ব বা বঞ্চিথাপত্য বিসহ প্রাধা दिगम्बर जैन साहित्प के सर्जन, विकास एवं अभ्युदय की दृष्टि से दक्षिण निःसन्देह बड़ा उर्वर क्षेत्र सिद्ध हुआ। इस भूमि में उत्पन्न महान् आचार्यों ने तत्त्व-ज्ञान, अध्यात्म एवं धर्म-जागरण के परिपाठ में जो अनेक विषयों पर बहुविध साहित्य रचा, उसका भारतीय वाङमय एवं चिन्तनधारा में अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यों कहना अतिरंजन नहीं होगा कि दिगम्बर-जैन-परम्परा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य यहीं दक्षिणापथ में प्रणीत हुआ । उन्होंने अपनी अनुपम कृतियों द्वारा जैन वाङमय को अपनी अप्रतिम देन दी। उनमें समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार प्रादि तथा अनेक प्राभृतग्रन्थों के रचनाकार आचार्य कुन्दकुन्द (ई० सन् के प्रारम्भ के आस-पास), इतने गौरवास्पद कि दिगम्बर परम्परा में जिनका नाम गणधर गौतम के बाद लिया जाता है. १. मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गोतमो गणी । ___ मंगलं कुन्दः सदाचार्यो, जैनधर्मस्तु मंगलम् ।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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