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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६१९ ___ खैर, यह तो पौराणिक रष्टिकोण है, फिर भी दक्षिण का अत्यन्त प्राचीन काल से धर्म के साथ सम्बन्ध रहा है, ऐसा निश्चय ही अनुमेय है। आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण में आने के सन्दर्भ में पिछले पृष्ठों में चर्चा की ही गई है। বাৰৰণ স্কা অম-লক্ষন। कलिंग-देश में घटित एक महत्वपूर्ण घष्टना को यहां अंकित करना आवश्यक है। खारवेल कलिंग का प्रतापशाली सम्राट् था। उसके राज्यारोहण का समम ई० पू० १४३ वर्ष माना जाता है । वह परम आस्थावान् जैन था । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए जो महान् कार्य किया, उसके पौत्र सम्प्रति ने उत्तर भारत में जैन धर्म के प्रसार के हेतु उसी प्रकार का अभियान चलाया। इसी श्रृंखला में कलिंगाधिपति खारवेल का नाम आता है, जिसके प्रयास से दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रसार हुआ । सम्राट् खारवेल महान् विजेता था। उसकी सफल दिग्विजय से जब शुग, सातवाहन तथा उत्तरापथ के यबन आदि-सभी दुर्दान्त शक्तियां हतप्रभ हो गईं, तब उसने जैन धर्म के अभ्युदय, व्यापक प्रसार एवं प्रभावना के निमित्त एक विराट् सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें जैन धर्म के बड़े-बड़े विद्वान्, श्रमण, जैन धर्मानुयायी राजा तथा सम्भ्रान्त जन बड़े उत्साह से उपस्थित हुए । उसमें जैन धर्म के सन्दर्भ में अनेक विषयों पर महत्वपूर्ण विचारविर्मश चला। सम्मेलन में उपस्थित विशाल जैन-संघ ने खारवेल का अभिनन्दन किया तथा उसे 'महाविजयी' के विरुव के साथ-साथ 'खेम-राजा', भिक्खु-राजा', 'धम्म-राजा' जैसे पदों से विभूषित किया। कहा जाता है कि पाण्ड्य- नरेश ने उस अवसर पर उसके यहां चावलों से भरा एक जहाज भेजा था। इस सम्बन्ध में विस्तार में न जाकर इतना ही कहना है कि दक्षिण भारत में जैन धर्म ई० सन् के प्रारम्भ से पहले ही पहुंच चुका था। कलिंगाधिपति खारवेल तथा दक्षिण के अन्य नरेशों के सत्प्रयास से वह दक्षिण में प्रसार पाने लगा। तमिलनाडु व प्रान्ध्र-प्रदेश में वह पहुंचा ही, मुख्यतः कर्नाटक में उसका बहुत अधिक प्रसार हुआ। भद्रबाहु के नाम के साथ जुड़ी हुई उत्तर के जैन श्रमण संघ के दक्षिणकर्नाटक प्रदेश में जाने की घटना, जो अंशतः ही सही, ऐतिहासिक सत्य लिए हुए है, इस तथ्य की पोषक है । मानना होगा कि उससे पूर्व वहां जैन धर्म काफी विस्तार पा चुका होगा। तभी तो सहस्रों श्रमरणों का संघ वहां जाते हुए अपने मन में आश्वस्त रहा हो कि वहां उनकी देह-यात्रा भली-भांति, विधिवत् निभ सकेगी। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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