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भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [ ३०१ में आगे बढ़ेंगे और नूतन तथ्य प्रकाश में आयेंगे, ऐसी आशा करना अनुचित नहीं होगा । ब्राही से विभिनलिपियों का विकास
ब्राह्मी के अक्षर बहुत सरल थे। उनके लिखने में अपेक्षाकृत अधिक सुविधा थी। उनमें मात्राओं की अनावश्यक बहुलता नहीं थी। अक्षरों की रचना ग्रीक या लैटिन कैपिटल लेटस ( Capital Letters ) जैसी थी। निम्नांकित अक्षरों के उदाहरण से यह भली-भांति प्रकट होता है :
ब्राह्मी देवनागरी ब्राह्मी देवनागरी
500 + N AF :
-1007
R1
व्यंजनों से मिलने वाले स्वरों के विशेष चिह्न व्यंजनों के मस्तक, पर, शरीर आदि पर लगाये जाते थे। इस पद्धति का प्रभाव आज भो भारतीय अक्षरों पर प्राप्त होता है।
ब्राह्मी-लिपि के अक्षर जब तक प्रस्तर-शिलाओं पर छैनी से उत्कीर्ण किये जाते रहे, तब तक कोई परिवर्तन नहीं आया; क्योंकि यह कार्य बहुत धीमी गति से होता है। यह शीघ्रता का काम नहीं है।
. शिलालेखों के पश्चात् वह युग आता है, जब अक्षर भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाने लगे। शिलालेखों की तुलना में इन पर लिखे जाने की गति में अन्तर आया। कीलक या लेखिनी छैनी से तेज चलती है। गति में शीघ्रता या तीव्रता आने के कारण अक्षरों का रूप कुछ परिवर्तित होने लगा। ब्राह्मी-लिपि का आदि रूप अधिकांशतः सीधी आकृति का था। लेखन में प्रयुक्त होने के परिणाम-स्वरूप वह जटिल होने लगा। भारत के भिन्नभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की प्रादेशिक भाषाओं के साहचर्य से ब्राह्मो की परिवर्तित होती हुई अक्षरमाला परस्पर कुछ-कुछ जटिलतापूर्ण भिन्न रूप लेने लगी। यदि आज विभिन्न प्रदेशों में व्यवहृत होती अक्षरमालाओं की ब्राह्मी अक्षरों से तुलना की जाये, तो यह स्पष्ट
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