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________________ २६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ अज्ञात को ज्ञात करना प्रज्ञा का स्वभाव है। भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में देवीउत्पत्ति का सिद्धान्त प्रज्ञाशील मानव को समाधान नहीं दे सका। मानव ने बुद्धि और अनुमान के आधार पर तब समाधान ढूंड निकालने का प्रयत्न किया। यही ज्ञान के विकास का क्रम है। अपने प्रयत्न में कौन कितना सफल हो सका, यह समीक्षा और विश्लेषण का विषय है, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे प्रयत्न जिज्ञासा की ओर आगे बढ़ने वालों के लिए बड़े प्रेरक सिद्ध हुए। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में अधिकांशत: कल्पनाओं के आधार पर समाधान ढूढ़े जाते रहे हैं, क्योंकि दूसरा कोई ठोस आधार नहीं था। मूलभूत सिद्धान्त निर्णय-सिद्धान्त ___एक मत है, जब भाषा नहीं थी, तो लोग परस्पर में हाथ आदि के संकेतों से किसी तरह अपना काम चलाते थे। पर, इससे उनको सन्तोष नहीं था। उत्तरोत्तर जीवन विकास पाता जा रहा था। साधन-सामग्री में विविधता और बहुलता आ रही थी। विकासमान परिस्थिति मन में अनेक प्रकार के नये-नये भावों को उत्पन्न करती थी। पर, इन सब के लिए अभिव्यक्ति के हेतु मानव के पास कुछ था नहीं। सबके लिए इसकी बड़ी खिन्नता थी। सब एकत्र हुए। अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन ढढना था । विभिन्न वस्तुओं, क्रियाओं आदि के प्रतीक या सकेत के रूप में कुछ ध्वनियां या शब्द निश्चित किये । उनके सहारे वे अपना काम चलाने लगे। शब्दों का जो प्रयोग-क्रम चल पड़ा, उसने और नये-नये शब्द गढ़ने तथा व्यवहार में लाने की ओर मानव को उद्यम रखा। भाषा-विज्ञान में इसे 'निर्णय-सिद्धान्त' कहा जाता है। प्रो० रूसो इसके मुख्य समर्थक थे। इसे प्रतीकवाद, संकेतवाद या स्वीकारवाद भी कहते हैं; क्योंकि इसमें शब्दों का प्रतीक या संकेत के रूप में स्वीकरण हुआ। कल्पना सुन्दर है, पर, युक्तियुक्त नहीं है। यदि कोई भाषा नहीं थी, तो सबसे पहले यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे एकत्र ही कसे हुए ? एकत्र होने के लिए भी तो कुछ कहना-समझाना पड़ता है। बिना भाषा के कहने की बात कसे बनी ? एकत्र हो भी जाए, तो विचार-विनिमय कैसे होता? विचार-विनिमय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। विभिन्न बस्तुओं और क्रियाओं के लिए संकेत या ध्वनियों का स्वीकार या निर्णय भी घिना भाषा के सम्भव कैसे होता? इस कोटि का विचार-विमर्श भाषा के बिना केवल संकेतों से सम्भव नहीं था। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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