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________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा प्रवाह [ २७ दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि वे एकत्र हो सके, ध्वनियों या शब्दों के रूप में नामों का निर्णय कर सके, तो उनके पास, चाहे अपूर्ण, अविकसित या टूटी-फूटी ही सही, कोई भाषा अवश्य ही होगी । उसके अभाव में यह सब सम्भव नहीं था । यदि किसी भी प्रकार की भाषा का होना मान लें, तो फिर नामों की खोज के लिए एकत्र होने की आवश्यकता नहीं रहती । उसी अपूर्ण भाषा को पूर्ण या विकसित बनाया जा सकता था । धातु - सिद्धान्त भाषा के उद्भव के सन्दर्भ में एक और विचार आया, जो बड़ा कुतूहल -जनक है । वह भाषा-विज्ञान में 'धातु - सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अनुसार संसार में जितनी भी वस्तुए हैं, उनकी अपनी-अपनी ध्वनिर्या हैं | उदाहरणार्थं, यदि एक कांसी की थाली पर डंडे से मारें तो झन-झन की ध्वनि होगी । पीतल की थाली पर मारने से जो saft होगी, वह कांसी की थाली से भिन्न प्रकार की होगी । लोहे के टीन पर या सन्दूक पर मारने से ध्वनि का दूसरा रूप होगा । इसी प्रकार कागज, काठ, कांच, कपड़ा, चमड़ा, पत्थर आदि भिन्न-भिन्न वस्तुओं से भिन्न-भिन्न ध्वनियां मिलेंगी । ऐसा क्यों होता है ? यह ध्वन्यात्मक भिन्नता क्यों है ? उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार संसार के प्रत्येक पदार्थ की अपनी एक स्वाभाविक ध्वनि है, जो सम्पर्क, संघर्ष, टक्कर या आघात से स्फुटित होती है । इतना ही नहीं, इस सिद्धान्त के पुरस्कर्त्ताओं ने यहां तक माना कि प्रत्येक मनुष्य में एक विशेष प्रकार की स्वाभाविक शक्ति है । वह जब जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, दूसरे शब्दों में उनसे टकराता है या संस्पृष्ट होता है, तब सहसा सम्मुखीन या संस्पृष्ट बस्तुओं के अनुरूप उसके मुंह से भिन्न-भिन्न ध्वनियां निकलती हैं । इस प्रकार समय-समय पर मानव के मुख से जो ध्वनियां प्रस्फुटित हुई, वे ही मूल धातुएं थीं। प्रारम्भ में वे धातुए संख्या में बहुत अधिक थीं। पर, सब सुरक्षित नहीं रह पाई । शनै: शनेः लुप्त होती गयीं । उनमें बहुत-सी परस्पर पर्यायवाची थीं। बहुसंख्यक में योग्यतमावशेष ( Survival of the fittest ) के अनुसार कुछ ही विद्यमान रह पाते हैं । इस प्रकार लगभग चार सौ पांचसौ तु शेष रहीं । उन्हीं से क्रिया, संज्ञा आदि शब्द निष्पन्न हुए और भाषा की निर्मिति हुई 1 इस विचारधारा के उद्भावक और पोषक मानते थे कि धातुओं की ध्वनि और तद्गम्य अर्थ में एक रहस्यात्मक सम्बन्ध Mystic Harmony ) है । कहने से सम्भवतः यह तात्पर्य रहा हो कि वह अनुमेय और अनुमात्य है, विश्लेष्य नहीं । रहस्यात्मक उपर्युक्त शक्ति के सम्बन्ध में इस मत के समर्थकों का यह भी मानना था कि मानव में पुरातन समय में जो ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना की शक्ति थी, उत्तरवर्ती काल में यथावत् रूप में विद्यमान नहीं रह सकी; क्योंकि भाषा के निर्मित हो जाने के अनन्तर वह अपेक्षित Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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