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भाषा और साहित्य शिलालेखी - प्राकृत
[ २३७ यथावत् बने रहते हैं। जैसे, प्रज, ब्रमण, श्रमण' इत्यादि। कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप (द्वयर्थ के लिए ) दियट' जैसे रूप भी मिलते हैं।
जिन संयुक्त व्यंजनों में ल मिला रहता है, उनमें ल का प्रायः लोप हो जाता है । विशेषत: यह प्रवृत्ति उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में प्राप्त होती है। अन्य शिलालेखों में ऐसा नहीं पाया जाता। इसके अनुसार कल्प के लिए कप तथा अल्प के लिए अप जैसे प्रयोग प्राप्त होते हैं।
पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में क्ष के लिए छ का प्रयोग पाया जाता है। जैसे, मोछये, छमितविय, छमनये ।
१. ""तथं च मे प्रज अनुवटतु। ( ..."तथा च मे प्रजा अनुवर्तन्ताम् )
-पंचम शिलालेख २ (क) मित्रसंस्तुत अतिकनं च ब्रमणश्रमणन....। ( मित्रसंस्तुत ज्ञानीनां च ब्राह्मणश्रमणानां""1)
-तृतीय शिलालेख (ख) तत्र हि वसंति ब्रमण व श्रमण व." (तत्र हि वसन्ति ब्राह्मणा वा श्रममा वा" ।)
-त्रयोदश शिलालेख ३. त्रयोदश शिलालेख ४. .."इमं अवकप प्रमे शिले च तिस्तिति ध्रम अनुशशिशंति । ( इदं यावत् कल्पं धर्मे शीले च तिष्ठन्तः धर्ममनुशासिष्यन्ति ।)
-चतुर्थ शिलालेख ( शाह० ) ५. अपवयत अपमंडत सधु । ( अल्पव्ययता अल्पमाण्डता साधु । )
-तृतीय शिलालेख ६ मौछये इयं अनुबधं....। (.."मोक्षाय च एवमनुबन्ध... ।)
-पंचम शिलालेख ७ (क) यो पि च अपकरेय ति छमितवियमते वो देवनं प्रियस यं शको छमनये।
( योऽपि च अपकरोति क्षन्तव्यमत एव देवानां प्रियस्य यः शक्यः क्षमणाय ।) (ख) इच्छति हि देवनं प्रियो सबभूतन अछति..." ( इच्छति हि देवानां प्रियः सर्वभूतानामक्षति...)
... -त्रयोदश शिलालेख
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