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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ्मय आत्मा की स्वस्थता - अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति, अन्तः परिष्कृति तथा आत्म- जागरण का वह ( प्रतिक्रमण ) परम साधक है। जैन परम्परा में प्रतिक्रमण के पांच प्रकार माने गये हैं - १. देवसिक, २. रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक तथा ५ सांवत्सरिक । पाक्षिक सूत्र की रचना का आधार पाक्षिक प्रतिक्रमरण है। इसे आवश्यक सूत्र का एक अंग ही माना जाना चाहिए अथवा उसके एक अंग का विशेष पूरक । प्रस्तुत कृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह; इन पांच महाव्रतों के साथ छठे रात्रि - भोजन को मिला कर छः महाव्रतों तथा उनके प्रतिचारों का विवेचन है । क्षमाश्रमरणों की वन्दना भी इसमें समाविष्ट है । प्रसंगतः इसमें बारह अंगों, सैंतीस कालिक सूत्रों तथा अट्ठाईस उत्कालिक सूत्रों के नामों का सूचन है । प्राचार्य यशोदेव सूरि ने इस पर वृत्ति की रचना की, जो सुखवि बोधा के नाम से प्रसिद्ध है । खामरणा-सुत (क्षामरणा-सूत्र ) पाक्षिक क्षामणा सूत्र के नाम से भी यह रचना प्रसिद्ध है । इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है । इसे पाक्षिक सूत्र के साथ गिनने की परम्परा भी है और पृथक् भी । वंदित्तु सुत्त इस सूत्र का प्रारम्भ वंदित्त सव्वसिद्ध इस गाथा से होता है और यही इसके नामकरण का आधार है । ऐसी मान्यता है कि इसकी रचना गणधरों द्वारा की गयी। अनेक आचार्यो ने टीकाओं की रचना की, जिनमें देवसूरि, पार्श्वसूरि, जिनेश्वर सूरि, श्रीचन्द्रसूरि तथा रत्नशेखर सूरि आदि मुख्य हैं। चूरिंग की भी रचना हुई, जो इस पर रचे गये व्याख्या - साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन है । इसके रचयिता विजयसिंह थे ११८३ विक्रमाब्द है । वंदित सुत्त की अपर संज्ञा श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र आवश्यक से सम्बद्ध ही माना जाना चाहिए । । रचना - काल भी है । इसे इसिमासि ( ऋषिभाषित) ऋषि से यहां प्रत्येक बुद्ध का आशय है । यह सूत्र प्रत्येक बुद्धों द्वारा भाषित या निरूपित माना जाता है । तदनुसार इसकी संज्ञा ऋषिभाषित हो गयी। इसके पैंतालीस अध्ययन हैं, जिनमें प्रत्येक बुद्धों के चरित्र वर्णित हैं । इसके कतिपय अध्ययन पद्य में हैं तथा कतिपय गद्य में । कहा जाता है कि इस पर नियुक्ति की भी रचना की गयी, पर वह अप्राप्य है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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