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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
नन्दी तथा अनुयोगद्वार
नन्दी-सूत्र : रचयिता
नदी सूत्र के रचयिता दूष्यगणी के शिष्य देववाचक माने जाते हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार देववाचक देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का ही नामान्तर है । देववाचक और देवगिरणी क्षमाश्रमण दो व्यक्ति नहीं हैं, एक ही हैं, पर, एतत्सम्बद्ध सामग्री से यह स्पष्टतया सिद्ध नहीं होता, दोनों दो भिन्न-भिन्न गच्छों से सम्बद्ध थे, कुछ इस प्रकार के पुष्ट साक्ष्य भी हैं ।
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स्वरूप : विषय-वस्तु
ग्रन्थ के प्रारम्भ में पचास गाथाएं हैं। प्रथम तीन गाथाओं में ग्रन्थकार ने अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर को प्ररणमन करते हुए मंगलाचरण किया है । इसके पश्चात् चौथी गाथा से उन्नीसवीं गाथा तक एक सुन्दर रूपक द्वारा धर्म संघ की प्रशस्ति एवं स्तवना की है । बीसवीं और इक्कीसवीं गाथा में श्राद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभ से अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक; चौबीस तीर्थंकरों को सामष्टिक रूप में वन्दन किया गया है । बाईसवीं, तेईसवीं और चौबीसवीं गाथा में भगवान् महावीर के ग्यारह गरणधरों तथा धर्म-संघ का वर्णन है । पच्चीसवीं गाथा से सैंतालीसवीं गाथा तक प्रार्य सुधर्मा से लेकर दृष्यगणी तक स्थविरावली का प्रशस्तिपूर्वक वर्णन है । अड़तालीसवीं से पचासवीं गाथा तक तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षांति, मार्दव, शील आदि उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी युगप्रधान श्रमणों तथा श्रुत- वैशिष्ट्य - विभूषित श्रमरणों की स्तवना की है । इससे प्रकट है कि यह स्थविरावली युग-प्रधान परिपाटी पर आधृत है । तदनन्तर सूत्रात्मक वर्णन आरम्भ होता है । स्थान-स्थान पर गाथाओं का प्रयोग भी हुआ है ।
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ज्ञान के विश्लेषरण के अन्तर्गत मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव तथा केवलज्ञान की व्याख्या की गयी हैं । उनके भेद-प्रभेद, उद्भव, विकास श्रादि का तलस्पर्शी तात्विक विवेचन किया गया है । सम्यक् श्रुत के प्रसंग में द्वादशांग या गणि-पिटक के आचारांग, सुत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग प्रभृति बारह भेद निरूपित किये गये हैं। प्रासंगिक रूप में वहां मिथ्या श्रुत की भी चर्चा की गयी है । गणिक, आगमिक, अंग-प्रविष्ट, अंग - बाह्य प्रादि के रूप में श्रुत का विस्तृत विश्लेषरण किया गया है । आगमिक वाङ् मय के विकास
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