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________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ २३ विश्वास है कि विश्व की यह आदि भाषा है। सभी भाषाओं का यह उद्गम-स्रोत है। स्वर्ग के देव-गण इसी भाषा में सम्भाषण करते हैं । हिब्र से सभी भाषाओं का उद्गम सिद्ध करने के लिए ग्रीक, लैटिन आदि पाश्चात्य भाषाओं के ऐसे अनेक शब्द संकलित किये गये, जो उससे मिलते-जुलते थे। इस प्रकार यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से सिद्ध किये जाने के भी प्रयास हुए। इसके लिये ध्वनि-साम्य, अर्थ-साम्य आदि को आधार बनाया गया ! जो भी हो, तुलनात्मक अध्ययन का बीज रूप में एक क्रम तो चला, जो उत्तरवर्ती भाषा-शास्त्रीय व्यापक अध्ययन के लिये किसी रूप में सही, उत्साहप्रद था। इस्लाम का अभिमत ____ आदि भाषा के सम्बन्ध में इस्लाम का मन्तव्य भी उपर्युक्त परम्पराओं से मिलता-जुलता है। इस्लाम के अनुयायियों के अनुसार कुरान, जो अरबी भाषा में है, खुदा का कलाम है। मिस्र में भी प्राचीन काल से वहां के निवासियों का अपनी भाषा के सम्बन्थ में इसी प्रकार का विचार था । इस्लाम का प्रचार होने के अनन्नर मिस्रवासी अरबी को ईश्वर-दत्त आदि भाषा मानने लगे। भाषा को लेकर पिछली शताब्दियों तक धर्म के क्षेत्र में मानव की कितनी अधिक रूढ़ धारणाए बनी रहीं, मिस्र की एक घटना से यह विशेष स्पष्ट होता है। टेलीफोन का आविष्कार हुआ। संसार के सभी प्रमुख देशों में उसकी लाइनें बिछाई जाने लगी। मित्र में भी टेलीफोन लगने की चर्चा आई। मिस्रवासियों ने जब यह जाना कि सैकड़ों मील की दूरी से कही हुई बात उन्हीं शब्दों में सुनी जा सकेगी, तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। मिस्र के मौलवियों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि इन्सान की आवाज इतनी दूर नहीं पहुंच सकती। यदि पहुंचेगी, तो वह इन्सान की आवाज़ नहीं, अपितु शैतान की आवाज़ होगी; अर्थात् इन्सान की बोली हुई बात को शैतान पकड़ेगा, आगे तक पहुंचायेगा। जन-साधारण की मौलवियों के प्रति अटूट श्रद्धा थी। उन्होंने मौलवियों के कथन का समर्थन करते हुए कहा कि वे शैतान की आवाज नहीं सुनेंगे। उनके यहां टेलीफोन की लाइनें न बिछाई जायें। प्रशासन स्तब्ध था, कैसे करे ? बहुत समझाया गया, पर वे महीं माने। अन्त में वे एक शर्त पर मानने को सहर्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने कहा, कुरान की आयतें खुदा की कही हुई हैं। मनुष्य उनको बोल सकता है, शंतान उनका उच्चारण नहीं कर सकता। यदि दूरवर्ती मनुष्य द्वारा बोली हुई कुरान की आयतें टेलीफोन से सही रूप में Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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